SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ 'और मृगार श्रेष्ठ, विशाखा द्वारा दान किया गया प्रासाद 'पूर्वाराम मृगार-माता प्रासाद' कहलाता है, 'तथागत - बोधिसत्व प्रासाद' नहीं ? तुम्हारी पुत्रवधू ने शिलापट्ट पर तुम्हारा और अपना नाम आँक कर, सत्नाम बुद्ध के नाम को नहीं, अपने नाम को अमर कर दिया ? यही न ?' क्षण भर रुक कर भगवान् फिर बोले : 'और पूछता हूँ श्रेष्ठि, तुम्हारी पुत्रवधू के केवल एक मुक्ताहार का मूल्य यदि इतना हो सकता है, तो तुम्हारी निधि के तमाम अलंकार, रत्न- सुवर्ण का मूल्य कितना होगा ? सारे जम्बूद्वीप को खाली कर यह अकूत द्रव्य केवल तुम्हारी सम्पदा हो गया ? तो उन करोड़ों मानवों का क्या, जो केवल एक वसन, एक छप्पर और दो जून रूक्ष भोजन के सहारे जीते हैं ? उतना भर पाने को भी अपना सर्वस्व निचोड़ देते हैं । ' मृगार श्रेष्ठी क्या उत्तर दे ? उसका माथा लज्जा से झुक गया । श्रीभगवान् फिर बोले : 'पूछता हूँ श्रेष्ठियो, क्या तुम यह महादान करके जरा, मृत्यु, रोग, शोक, वियोग से सुरक्षित हो गये ?' 'पुण्य-लाभ किया भगवन्, ताकि 'ताकि अगले जन्म में तुम इससे शतगुने सुखद प्रासादों में निश्चिन्त पोढ़ो । शतगुनी अधिक सम्पत्ति के स्वामी बनो । शतगुने अधिक संसार - सुख का निर्बाध भोग कर सको । ताकि सारी सृष्टि और सारे भगवान् तुम्हारे स्वामित्व की वस्तु हो जायें ?' 'नहीं भगवन्, इस लिये कि पुण्य लाभ कर हम अपने पापों को काट सकें, और जरा-मृत्यु ग्रस्त संसार से तर सकें ।' 'तो क्या तथागत यह उपदेश करते हैं, कि पुण्य से तुम पाप, मरण और जरा को जीत सकते हो ? कि तुम पुण्य से परिनिर्वाण प्राप्त कर सकते हो ?' 'सो तो तथागत जानें, भगवन् ! हम ठहरे वणिक - व्यापारी, सार्थवाह | इतने सूक्ष्म ज्ञान में उतरने का हमें कहाँ अवकाश । हम तो केवल उन भगवान के शरणागत हैं। वे चाहें तो हमें तारें, चाहें तो हमें मारें । हम तो केवल उनकी धर्म - कथा सुनकर शान्त और निश्चिन्त रहते हैं ।' 'शान्त और निश्चिन्त रहते हो, जन्मान्तरों तक की संसार की सारी आपदविपद, आधि-व्याधि भगवान् तथागत को सौंप कर ? यही न ? आयुष्यमान् गाथापतियो, क्या तुम सच ही तथागत बुद्ध के शरणागत हो गये ?' 'शरणागत न हों, तो इस संसार के दुःखों से हमें कौन तारे ? हम तो इसी लिये आज आपके भी शरणागत होने आये हैं, हे जिनेन्द्र अर्हन्त ! ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy