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. 'तो सारे विश्व की सम्पत्ति का यह स्वामित्व कैसा? क्या तुमने अपने स्वामी तथागत को अपना सम्पत्ति-स्वामित्व समर्पित किया ?' .
क्षण भर को दोनों श्रेष्ठी बौखला गये। फिर कुछ सम्हल कर श्रेष्ठी अनाथ पिण्डक बोला :
'मैंने भगवान् तथागत को अपनी अपार सम्पत्ति का दान किया। मैंने जेत राजकुमार के योजनों व्यापी सुरम्य जेतवन उद्यान को, किनारे से किनारे तक सुवर्ण से पाट दिया। हठीला जेत राजकुमार फिर भी अपना उद्यान बेचने को राजी न हुआ। तो मैंने ऊपर से और अठारह कोटि सुवर्ण उसे दे कर, जेतवन उद्यान ख़रीद लिया। और उसे सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् तथागत को समर्पित कर दिया। मैंने उसमें विशाल नवखण्डी भिक्षु-प्रासाद बनवाया। अनेक आराम, विहार, स्नानागार, भोजनशाला, अतिथिशाला, चत्वर, चंक्रमण-उपवन का जाल बिछा दिया। कि श्री भगवान् और उनका भिक्षुसंघ वहाँ आवास ग्रहण करें, सुखपूर्वक विहार और धर्म-देशना करें।'
और तुमने, महानुभाव मृगार श्रेष्ठि ? तुमने अपने स्वामी तथागत गौतम को क्या अर्पित किया ?' ___'भन्ते भगवन्, मेरी पुत्रवधू विशाखा ने अपने एक मुक्ताहार के मूल्य से, जम्बूद्वीप में अद्वितीय, ऐसा एक विहार श्री भगवान् तथागत के लिये निर्माण कराया। वह 'पूर्वाराम मृगार-माता प्रासाद' कहलाता है। उसमें सात खण्ड हैं, और एक हजार प्रकोष्ठ हैं। उसे देखने के लिये और तथागत से धर्मलाभ करने के लिये देश-देशान्तर के अनेक यात्री आते हैं। और वहाँ निर्मित अनेक अतिथि-शालाओं में विश्राम ग्रहण कर, सुख से तथागत के जरामृत्यु निवारक उपदेशामृत का पान करते हैं।'
इसी बीच उतावला हो कर अनाथ पिण्डक बोला :
'और सुनें भगवन्, मैंने राजगृही से श्रावस्ती तक के मार्ग में ठेर-ठेर आराम, विहार, भिक्षु-मठ, धर्मशालाएँ बनवा दीं। ताकि श्री भगवान् तथागत अपनी धर्म-यात्रा में वहाँ सुखासीन हों। राह के जनपदों को अपनी कल्याणी धर्मवाणी से प्रतिबुद्ध करें, परिप्लावित करें। मैंने भगवान् के मंगल धर्म-चक्रप्रवर्तन के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया !'
'सर्वस्व समर्पित कर दिया ? तो क्या अपनी सम्पत्ति का स्वामित्व तुमने तथागत को अर्पित कर दिया ? महानुभाव मृगार श्रेष्ठि, क्या तुमने भी ?'
दोनों श्रेष्ठी हक्के-बक्के से एक-दूसरे को ताकते रह गये। उनसे कोई उत्तर न बना। श्री भगवान् चुपचाप उन्हें निहारते रहे, फिर बोले :
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