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________________ ९४ निकली। महावीर के पास शरण खोजने के लिये। मार्ग में बटमार दस्युओं ने उसका हरण कर, उसे श्रावस्ती के दासी-पण्य में बेच दिया। कोशल के किसी धन-कुबेर ने उसे खरीद कर, अपने राजाधिराज प्रसेनजित् को प्रसन्न करने के लिये, उन्हें भेंट कर दिया। श्रेष्ठी को सम्पदा अधिक सुरक्षित हुई, और कामुक राजा ने एक और अनुपम सौन्दर्य-रत्न से अपने अन्तःपुर का शृंगार किया। उसकी प्राप्ति के उपलक्ष्य में कोशलेन्द्र ने उत्सव-रात्रि मनाई। सारा राजपरिकर सुरापात्रों में डूब गया। लेकिन पंछी भाग निकला।...' श्री भगवान् ने चुप रह कर, एक हो निगाह से चन्द्रभद्रा और राजा को निहारा । और बोले : 'देख राजा, तेरे हाथ की उड़ी मैना, फिर तेरे सामने है। तू इसे पकड़ कर रख सकता है ? तो ले इसे, यह तेरे सामने खड़ी है।' ___'यह मेरे सामने नहीं, प्रभु के सामने खड़ी है। इसे रखने की सामर्थ्य केवल त्रिभुवनपति अर्हन्त में है। मुझ में होती, तो यह कोशलेन्द्र की फ़ौलादी कारा तोड़ कर कैसे जा सकती थी? कोशलपति प्रसेनजित् देवी चन्द्रभद्रा से नतमाथ क्षमा याचना करता है।' शीलचन्दना ने अश्रुपूरित नयनों से हाथ उठा कर, राजा को क्षमा कर दिया। और वह महासती चन्दन बाला को समर्पित हो कर, श्रीभगवान् की सती हो गई। 'देवानुप्रिय अनाथपिण्डक, गृहपति मृगार श्रेष्ठी ! सुनता हूँ, तुम्हारे पास इतनी सम्पत्ति है, कि तुम सारे जम्बू द्वीप को ख़रीद सकते हो। क्या तुम अपनी उस तमाम सम्पत्ति से भी अपने राजा का विगत यौवन लौटा सकते हो? क्या तुम अपने कोटि-कोटि सुवर्ण से भी अपने राजा को मृत्यु से बचा सकते हो?' दोनों धन-कुबेर एक ही तार-स्वर में बोले : 'त्रिकाल में भी यह सम्भव नहीं, भगवन् । जरा, मृत्यु, रोग और वियोग का कोई निवारण नहीं। इस संसार की असारता और क्षण भंगुरता को हमने जान लिया, इसी से तो हम सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् तथागत की शरण चले गये। उन भगवान् के उपदेश से हम उबुद्ध हुए।' ___'महानुभाव श्रेष्ठियो, क्या तुम सच ही इस संसार की असारता और क्षणभंगुरता को जान गये? क्या तुम सच ही सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् तथागत को समर्पित हो गये? क्या तुम सच ही उद्बुद्ध हुए ?' . 'अपने जाने तो हुए, भन्ते।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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