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________________ तुम्हारे पास है ऐसा वीर्य, कि तुम इस हवा और आकाशों की आरोहिणी गान्धारी पर आरोहण कर सको? तक्षशिला की यह स्नातिका, शस्त्र, शास्त्र, वेद-वेदान्त, सारी विद्याओं की पारंगता हो कर भी, उनसे उत्तीर्ण है। यह लौकिक विद्या और सत्ता मात्र को भ्रम मानती है। इसी निर्धम चेतना के बल, इसने अपने गण और अनेक पड़ोसी प्रजाओं की सुरक्षा के लिये, अपने को दाँव पर लगा दिया। तुम्हारी धमकी और आतंक से डर कर नहीं। उसे यह तोड़ने आयी है। यह तुम्हारी विवाहिता हो कर भी, तुम्हें नहीं, केवल वत्सराज उदयन को प्यार करती है। इसके साथ तुम्हारी सोहाग रात सम्पन्न हो सकी, राजन् ?' _ 'भ्रम-भंग की रात हुई वह, देवार्य । मैं अन्तिम रूप से टूट गया। तब कल रात मैं महादेवी मल्लिका के अन्तःपुर में चला गया।' 'महादेवी मल्लिका, तुम्हारी गोद में तुम्हारे आर्यपुत्र निर्भय, आश्वस्त हो सके ? उन्हें शरण प्राप्त हो सकी ?' 'मुझ में नहीं, मेरे वक्ष में विराजित महावीर में इन्हें वह शरण मिली। ये बरसों बाद, आश्वस्त हो कर सो गये।' 'तो इन्हें परम आश्वस्ति प्राप्त हुई ?' 'नहीं भगवन्, बड़ी भोर ही फिर ये बहुत अनाथ, भयभीत, कम्पित हो उठे थे।' 'क्यों?' 'ये महावीर के आगमन की खबर से भयभीत और आतंकित थे।' 'तो अब महावीर तुम्हारे सामने है, वत्स । तुम्हारा आतंक टूटा, राजन् ? तुम निर्भय हुए ,राजन् ? तुम निर्धम हुए, राजन् ?' 'सर्वज्ञ भगवन्त स्वयम् साक्षी हैं !' 'गान्धारी कलिंगसेना, तू क्या चाहती है ?' । 'एक बलि-कन्या की क्या चाह हो सकती है, भन्ते ? पश्चिमी सीमान्त के सत्ताधीशों की सत्ता-सुरक्षा के लिये नहीं, मैंने वहाँ की लक्ष-कोटि प्रजाओं के स्वातंत्र्य के लिये अपनी बलि दी है। ताकि उन पर कोई साम्राजी पंजा न बैटे, उनकी स्वतंत्रता चिरकाल सुरक्षित रहे। इसके अतिरिक्त मेरी कोई चाह नहीं, भगवन् ।' 'तू अपने लिये क्या चाहती है, गान्धारी?' ... 'जिसने स्वेच्छा से ही आत्माहुति का वरण कर लिया, उसकी अपनी हर चाह, उसी क्षण समाप्त हो गई।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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