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सत्ता के मूल में चेतन और अचेतन के बीच कोन रेखा खींच सकता है ? जड़-चेतन का भेद-विज्ञान अवान्तर सत्ता में है, महासत्ता में नहीं, गौतम। ___किन्तु सुनो, गौतम, चेतन वृक्ष से कटा काष्ठ, चेतन पृथ्वी से बिछुड़ा पत्थर, पुद्गल है, अचेतन है । वह स्व-संवेदक नहीं । पर-संवेदक नहीं । यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है । शास्ता प्रस्तुत प्रासंगिक को भी देखते हैं, वे केवल परम, पूर्ण और निश्चय ही नहीं देखते । वे अन्तिम और उपस्थित को एकाग्र एक साथ देखते हैं । वे यथार्थदर्शी हैं, वास्तव ज्ञानी हैं । वे भेद-विज्ञानी भी हैं, भेदातीत ज्ञानी भी हैं । वे द्वंद्व और द्वंद्वातीत में एक साथ खेलते हैं ।
'प्रतिबुद्ध हुआ, भन्ते । आलोकित हुआ, स्वामिन् ।' 'एवमस्तु, देवानुप्रिय।'
'और भगवन्, प्रकृति और पुरुष, नर और नारी के इस चिरन्तन द्वंद्व को आलोकित करें।'
'द्वंद्व में से ही सृष्टि है । इस युग्म में से ही आविर्भाव है। इस संयुक्ति में से ही अभिव्यक्ति है । इस द्वैत लीला में भी, प्रकृति और पुरुष के भीतर, नर और नारी के भीतर, अट्ट मिलन की अनिर्वार पुकार सर्वत्र लक्षित है। वह क्या फिर से अद्वैत में तदाकार हो रहने की अदम्य महावासना ही नहीं है ?'
'मेरी अदीठ ग्रंथि खुल गई, प्रभु । और भी आलोकित करें, देवार्य ।'
'मत्ता-पुरुष स्वभाव से ही निरन्तर अनेक रूप-पर्याय में परिणमन कर रहे हैं । उस परिणमन की अभिव्यक्ति ही प्रकृति है । वैसे ही नारी यहाँ, नर के अनन्त स्वप्न और वीर्य की अभिव्यक्ति है । स्त्री, पुरुष की ल्हादिनी क्रियाशक्ति है, गौतम । वह सच्चिदानन्द की चिदानंदिनी कामायनी है । भवनाथ शिव के भीतर जब सृजन की ऊर्जा का उन्मेष होता है, तो वह विधात्री शक्ति भवानी के रूप में यहाँ प्रकट होती है । . . .
'यह तो आप ब्राह्मण वाङमय बोल रहे हैं, भन्ते !'
'प्रश्न जहाँ से आ रहा है, वहीं से उत्तर आ रहा है । प्रश्न भाव में से आ रहा है, तो उत्तर महाभाव में से आ रहा है। ब्राह्मण वाङमय सत्ता और आत्मा की कविता है, गौतम । श्रमण वाङमय सत्ता और आत्मा का विज्ञान है, गौतम । दोनों ही अस्तित्व के अनिवार्य, और परस्पर पूरक पहलू हैं, गौतम ।' ___तो क्या ब्राह्मण-दर्शन और श्रमण-दर्शन में कोई भेद नहीं, भन्ते, विरोध नहीं, भन्ते ।' ___ 'वस्तुत: कोई भेद नहीं, केवल दृष्टि-बिन्दु का भेद है, गौतम । भिन्न दृष्टिबिन्दु से बात भिन्न रूप में कही जाती है। मूल महासत्ता में कोई विभाजन नहीं,
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