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• • • 'जानना चाहते हो, गौतम, कि चेतन और अचेतन यदि सर्वथा भिन्न हैं, तो प्रकट अस्तित्व में वे एक-दूसरे से आबद्ध, संयुक्त क्यों कर हैं ? क्यों कर वे एक-दूसरे में क्रिया-प्रतिक्रिया करते दिखाई पड़ते हैं ? तुम्हारा प्रश्न प्रस्तुत है गौतम, संगत है गौतम !'
'अर्हत अन्तर्यामी हैं । मेरे प्रश्न भी वही, मेरे उत्तर भी वही।' 'प्रकट में देखते हो, बछड़े के गले में पड़ी रस्सी उसे बाँधे हुए है । पर यथार्थ में देखो, तो रस्सी, रस्सी को ही बाँधे हुए है । रस्सी की गाँठ रस्सी में ही पड़ी है। वह बछड़े को कहाँ बाँधे हुए है ? वह बछड़े को बाँध सकती ही नहीं । वह स्वभाव नहीं, सो वह शक्य नहीं, देवानुप्रिय ।'
'तो भन्ते, चेतन और अचेतन अन्तिम रूप से भिन्न हैं, दो हैं, कदापि काल एक नहीं हो सकते ? द्वैत ही अन्तिम सत्य है ? अद्वैत मात्र भ्रान्ति है ?'
‘सत्ता अनेकान्त है, गौतम । समग्र महासत्ता के रूप में वह अद्वैत है. गौतम । बहुरूपा अवान्तर सत्ता के रूप में वह द्वैत है, गौतम । अस्तित्व में चेतन और अचेतन द्रव्य, कभी भिन्न भासते हैं, कभी अभिन्न भासते हैं। केवलज्ञानी, उन्हें यथास्थान, तद्रूप देखता-जानता है । इस अनेकान्तिनी लीला को, प्रस्तुत प्रसंगानुसार वह द्वैत भी कहता है, अद्वैत भी कहता है। व्यक्त और प्रकट की बहुआयामिता का, शब्द में सापेक्षकथन ही हो सकता है।'
'तो फिर अन्तिम निश्चय कैसे हो, भन्ते ?'
'निश्चय तत्त्व कथ्य नहीं, वह केवल अनुभव्य है, केवल बोधगम्य है । उसे केवल जिया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता । वह तो बस जो है, वह है । कथन में अपलाप अनिवार्य है, ऐकान्तिकता अनिवार्य है । तत्त्व से अस्तित्व, और अस्तित्व से तत्त्व तक की यात्रा केवल ज्ञेय है, संवेद्य है, बोध्य है, कथ्य नहीं । वह महासत्ता का चरम गोपन रहस्य है ।' ___ 'मुझे तो कुछ भी अचेतन नहीं दीखता, भन्ते । एकोब्रह्म द्वितीयो नास्ति क्यों नहीं?
'है, गौतम । वह भी है। वही महासत्ता है । आत्मलीन होने पर, सर्वलीन होना अनिवार्य है। सर्वत्र चिति ही देखते हो, चेतन ही देखते हो, जड़ नहीं देखते ? तथास्तु गौतम । मूल में तो कुछ भी अचेतन नहीं, गौतम । जड़ काष्ठ मूलतः चेतन वृक्ष था। जड़ दीखता पत्थर, अपनी खान में पृथ्वी-कायिक जीव था। जड़ दीखता रत्न, अपनी खान में जीवन्त था। निर्जीव हो गई वस्तु मात्र अपने मूल स्रोत में कभी जीव थी ही । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति ये सब एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं । आकाश का रेशा-रेशा चिति-शक्ति की ऊर्जा से अव्याहत परिव्याप्त है । शब्द, छाया, प्रकाश कहीं मलतः चिति के संघात से उत्पन्न हैं ।
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