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देखो देखो देखो : जानो जानो जानो अविकल्प अन्तहीन . और हठात् यवनिका उठ जायेगी : देखना सम्यक् हो जायेगा,
जानना सम्यक् हो जायेगा जीना सम्यक् हो जायेगा पासह पासह, पासह गौतम जाणह जाणह, जाणह गौतम
बुज्झह बुज्झह बुज्झह गौतम प्रतिबुद्ध होओ, गौतम : सर्व को प्रतिबुद्ध करो, गौतम
अरहन्ते सरणं पव्वज्जामि सिद्धे सरणं पत्वज्जामि __साहू सरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं घम्म सरणं पव्वज्जामि . . .
और भगवान चुप हो गये । उन्मनी दृष्टि से वे सर्व को निश्चल निहारते रह गये । और मुनि, मानव, देव, पशु, सर्व निकाय के प्राणि मात्र की असंख्य आँखें प्रभु की उस एकाग्र दृष्टि से तद्रूप हो रहीं। उसमें उन्होंने अपने असली चेहरे देख लिये । अपने को और सर्व को क्षण भर आरपार देख लिया । ___ अर्हत की निरक्षरी दिव्य-ध्वनि, अनायास उनकी आत्माओं में अक्षर हुई, शब्द हुई, भाव हुई, अर्थ हुई : और फिर अशेष बोध हो रही । नभचर, जलचर, थलचर सारे ही पशु-पंखी उससे, अक्षर और शब्द से परे भावित हुए, सहज समाधान और शांति पा गये । क्षण भर को केवल स्वयम् हो रहे ।
लेकिन पट्ट गणधर गौतम को सर्वज्ञ की प्रज्ञा का शब्दकार होना है । उसे मानव के लिये मनोगम्य और बुद्धिगम्य बनाना है। सो उन्होंने शब्दों की भाषा में समीचीन तत्त्वज्ञान पाना चाहा । वे प्रश्न करने को ही थे कि--
-- "हठात् तुरीयातीत प्रभु तुरीयवाक् हुए :
'सर्वज्ञ तत्त्व नहीं कहते, अस्तित्व कहते हैं, गौतम । अर्हत सामने प्रस्तुत जीवन कहते हैं । अस्तित्व-बोध सम्यक हो, तो तत्त्व स्वतः भीतर प्रकाशित हो उठता है।'
'फिर भी जाने बिना चैन नहीं, प्रभु । अनाहत शब्द को श्रुति होना है, ताकि । वह देश-काल में सर्व को बुद्धिगम्य हो सके। इसी से मेरी जिज्ञासा को विराम
नहीं । जानना चाहता हूँ, भगवन् कि . . .'
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