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________________ ही देखते हैं, सम्यक् ही जानते हैं, सम्यक् ही जीते हैं। इसी बिन्दु पर ज्ञाता और ज्ञेय के बीच, प्रेमिक और प्रेय के बीच, अनन्त सम्भोग, अटूट मिलन सम्भव होता है । यही पूर्ण प्राप्ति है, पूर्ण काम है । यही पूर्ण भोग है, नित्य और निराकुल सुख है । _ 'इस स्थिति में जीने पर, भोग से भी कर्म का बन्ध नहीं होता, कर्म की निर्जरा ही होती है । तब भोग भी योग हो जाता है, भुक्ति ही मुक्ति और मुक्ति ही भुक्ति हो जाती है । क्षय, विनाश, रोग, जरा, मृत्यु, शोक, वियोग अपने आप में कोई सत्ता नहीं । ये स्वभाव नहीं, विभाव हैं । ये अभावात्मक, अनात्मिक स्थितियाँ हैं। ज्ञानी इन्हें केवल देखता और जानता है । अनुभव नहीं करता । मिथ्याज्ञानी इन्हें करता है, अनुभवता है, भोगता है। जब ज्ञाता ज्ञेय को, प्रेमिक प्रेय को सम्यक् देखता, सम्यक् जानता, सम्यक् सम्वेदता, सम्यक् अनुभवता और सम्यक् जीता है, तब क्षय, रोग, विनाश, जरा, मृत्यु, रोग, शोक, वियोग अनुभव में ही नहीं आते। __'यह सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् अवबोधन, सम्यक् चर्या का चेतनास्तर है। इसे कह कर अनुभव नहीं कराया जा सकता, गौतम । इसे उपलब्ध हो कर ही, इसको प्रत्यक्ष साक्षात् और अनुभव किया जा सकता है । जिया जा सकता है। वह स्वभाव हो जाना चाहिये । वह जीवन हो जाना चाहिये। ___ 'ओ लोकालोक की आत्माओ, ओ मेरे युगतीर्थ के लोगो, जो मैं देख और जान रहा हूँ, वही कह रहा हूँ। अविभाज्य समयाणु में अर्हत् एकबारगी ही दर्शन, ज्ञान और कथन कर रहे हैं । यही शुद्ध सत्ता को जीना है। यही मुक्ति है। यही अनाहत जीवन है । अर्हत् को उपस्थिति उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। उसकी प्रवृत्ति और अतिक्रान्ति उसका परिणाम है। 'ओ त्रिलोक और त्रिकाल की असंख्यात आँखों, मेरी आँखों में झांको। और देखो स्वयम् को और सर्व को, तद्गत, यथावत् । यथार्थ, निश्चय, ध्रुव द्रव्य स्वरूप में । नित्य वर्तमान, निरन्तर प्रवर्त्तमान, अनवरत वर्द्धमान । नित नव्य सुन्दर सत्ता, जो सतत हो रही है, फिर भी वही है । अपने और सर्व के अन्तिम, असली चेहरे देखो समक्ष । कैवल्य का दर्पण तुम्हारे सामने है । 'इससे आगे संप्रेषण नहीं, गौतम । केवल अवबोधन है, केवल अवगाहन है। केवल स्व-संवेदन है, केवल स्व का अनुभावन है। केवल देखो, देखो और देखो। केवल जानो, जानो और जानो । और 'केवल' हो जाओ। केवल होते रहो। यही मुक्ति है, यही मरण-जय है। यही अव्याबाध, नित्य भोग है । यही अनन्त मिलन है । यही अनन्त जीवन है, गौतम ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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