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हो कर, चेतन पर अनायास एक पाश या आवरण बुनते चले जाते हैं। इसी को कर्म-बंधन कहते हैं । जब चेतन में राग का प्रकंपन और स्पन्दन होता है, तो आसपास सर्वत्र व्याप्त कार्मिक परमाणुओं की अदृश्य रज उसमें धारासार प्रश्रवित होती है। इसी को जिनेश्वरों ने कर्मों का आश्रव कहा है । इस आश्रवण से ही कर्मावरण आत्मा पर छाता चला जाता है ।।
'इष्ट, अनिष्ट नाना कषाय रूप भावों के अनुसार, कर्म के आश्रव और बन्ध, विविध रूपों, आकारों, भावों में, सुरूप-कुरूप, सुन्दर-असुन्दर,-इष्ट अनिष्ट, सुखदुःख, हर्ष-विषाद में प्रतिफलित होते हैं । इसी को कर्म-फल कहते हैं । यह कर्म-विधान अन्ध भाग्यवाद नहीं । स्वतन्त्र, स्वाधीन क्रियावाद है। हर आत्मा कोई भी भाव, सम्वेदन, कर्म करने या न करने को स्वतन्त्र है । अपनी सत्ता और संभावना का वह सर्वतंत्र-स्वतंत्र विधाता है । वह चुनने को सदा स्वतन्त्र है। वह जो चाहे, वह हो सकता है। _ 'ज्ञाता और ज्ञेय दोनों ही अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं । अपने शुद्ध स्वभाव में वे केवल अपने ही कर्ता या भोक्ता हैं। अन्य के नहीं । न चेतन अचेतन का कर्ता, न अचेतन चेतन का कर्ता है। उन दोनों में निरन्तर अपने स्वतन्त्र परिणाम उत्पन्न हो रहे हैं ।। यदि उनके बीच का परस्पर सम्बन्ध रागात्मक न हो कर, ज्ञान-दर्शनात्मक हो, तो वे नित्य सौन्दर्य, आनंद और प्रकाश में विचरण करेंगे। वही मुक्तावस्था है । वही जीवन-मुक्ति है।
'ज्ञायक और ज्ञेय, पदार्थ और पुरुष, नर और नारी, एक-दूसरे को देखें, जानें, तद्रूप सम्वेदित करें । देखते ही जायें, देखते ही जायें । जानते ही जायें, जानते ही जायें । आत्मस्थ भाव से अन्तहीन सम्वेदित करते चले जायें। तो एकाग्र और समग्र ज्ञायक, एकाग्र और समग्र ज्ञेय को सदा के लिये सुलभ कर लेगा। तब सारी कामनाएँ अपने ही आप में पूर्ण हो रहेंगी। अपनी तृप्ति के लिये उन्हें पर की अपेक्षा न रहेगी । देखने, जानने, सम्वेदने, अनुभवने की यह संपूर्ण संचेतना ही, संपूर्ण ज्ञान, प्रकाश, सौन्दर्य, आनन्द में निरन्तर और निर्बाध जीना है । ___'इस प्रकार अपने स्व-भाव में, स्व-समय में सम्वरित हो कर जीना ही आत्मसंवरण है । अपने में सिमट रहना है। । आत्म-समाहित, अकम्प रहना है । और फिर केवल देखना, देखते ही जाना । देखने से बड़ा कोई सुख नहीं, कोई प्राप्ति नहीं, आनन्द नहीं । देखते, देखते, देखते, देखते - एक चरम पर पहुँच कर देखना हठात् समाप्त हो जाता है । जो दर्शन का विषय है, वह आत्म में, ज्ञान में, अनायास संपूर्ण प्रकाशित हो उठता है। चक्षु बाहर से बन्द हो भीतर खुल जाते हैं। और फिर जब आत्म-संचेतन हो कर बाहर पर खुलते हैं, तो सृष्टिको सम्यक्
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