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अर्हत् महावीर की धर्म-देशना आरम्भ हो गई :
'सकल चराचर सुनें, यह विश्व एक वास्तविकता है । यह माया नहीं, भ्रान्ति नहीं । यह परम सत् वस्तु है । यह ठोस पदार्थों का समुच्चय है। पदार्थ यथार्थ है । वह मात्र आभास नहीं। वह अपने आप में सक्रिय, स्वयम्भू सत्ता है । वह अनादि अनन्त है । उसका कोई कर्ता, धर्ता, हर्ता नहीं। वह आप ही अपना कर्ता, धर्ता, हर्ता है। स्वयम् ही अनुपल अपने को उत्पन्न करता है, स्वयम् ही अपने को धारण करता है, स्वयम् ही अपने को विसर्जन करता है । किन्तु अपने नित्य सत् स्वरूप में वह ध्रुव भी है । मूल में वह द्रव्य पदार्थ स्थिति रूप है । उस स्थिति के भीतर ही सर्जन और विसर्जन, गति और प्रगति का खेल निरंतर चल रहा है ।
‘पर यह द्रव्य ध्रुव हो कर भी कूटस्थ नहीं, परिणमनशील है। यह निरंतर गति-प्रगतिमान है । इसी से अनन्तकाल में, नित-नव्य रूपों में सृष्टि प्रकट हो रही है । यह सृष्टि, यह जीवन, यह जगत नित्य है, शाश्वत है। इसका विनाश नहीं । विसर्जन केवल रूप और पर्याय का होता है। जो पुरुष है, जो पर्यायी है, वह अक्षर अविनाशी है। स्थिति के बिना गति-प्रगति सम्भव नहीं । गति-प्रगति है, तो सर्जन और विसर्जन की प्रक्रिया अनिवार्य है। जो नित नव्य है, वही सुखद और सुन्दर हो सकता है, गौतम । यदि पदार्थ कूटस्थ हो, अपरिवर्तमान हो, तो वह बासी हो जायेगा । वह उबा देगा । इसी से पदार्थ और उसका ज्ञाता-दृष्टा, भोक्ता पुरुष, दोनों अपने आप में निरंतर गतिमान हैं। प्रगतिमान हैं। इसी से सौन्दर्य, आनन्द, ज्ञान, सृष्टि और उसका भोग सम्भव है ।
'उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा, गौतम' 'वह उत्पन्न होता है, वह व्यय होता है, वह विसर्जन होता है, और वही ध्रुव भी होता है , गौतम ! सत्ता जैसी सामने आ रही है, उसका निसर्ग स्वरूप यही है । यह अवधारणा नहीं, परिकल्पना नहीं, परिभाषा नहीं, यह साक्षात्कार है। सर्वज्ञ परिभाषा नहीं करते । परिभाषा परोक्ष ज्ञानी करता है । अर्हत् प्रत्यक्ष देखते हैं, प्रत्यक्ष कहते हैं, प्रत्यक्ष होते हैं । ____ 'जो समक्ष है, और देखने जानने में आता है, वह सब सत्ता है। वह सब अस्ति है । वह सब आवि: है। वह निरंतर सम्भावी है। वह सदा है, वह सदा हो रहा है, सदा होता रहेगा। जब यह देखना और जानना इन्द्रिय और मन से होता है, तब भी वह सत्य ही होता है । पर वह अधूरा ही देखता-जानता है । वह अपूर्ण ज्ञान है, वह अर्द्ध सत्य है. पर है वह सत्य । निरी भ्रान्ति नहीं ।
'पदार्थों का यह जगत जो, जितना, जैसा हमें प्राप्त है, समक्ष है, उसे एकाग्र देखो, एकाग्र जानो, एकाग्र अनुभव करो। पूर्ण संचेतना के साथ । तो पाओगे कि दो प्रकार की वस्तु हाथ आती है। कुछ है जो जानता है, देखता है, संवेदित होता
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