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कमलासन पर विराजमान दिखाई पड़े। उनकी मस्तक-पीठिका से सूर्य भामंडल की तरह उदय होते आये ।
पट्ट गणधर इन्द्रभूति गौतम ने सम्मुख हो कर, साष्टांग प्रणिपात किया । फिर नतशिर खड़े हो कर बिनती की :
'हे लोकालोक के स्वामी, प्राणि मात्र स्वभाव से ही निरंतर सुख खोज रहे हैं। वे दुःख से हर क्षण पीड़ित और भयभीत हैं । आदिकाल से ही सारे लोक-परलोक आर्त और संत्रस्त क्यों हैं ? यह इतनी सुन्दर सृष्टि क्या सदा दुःख में ही रहने को रची गयी है ? हर जीव यहाँ अपने को अनाथ, अरक्षित अनुभव करता है। कालान्तरों में अनेक अर्हत्, सर्वज्ञानी, तीर्थंकर, तारनहार यहाँ आये, पर इस संमार की नियति न बदल सकी। इसका दुर्भाग्य सुमेरु की तरह अटल रहा ।
'आज फिर तीनों कालों और लोकों के नाथ हमारे समक्ष हैं । चिरकाल के अनाथ अशरण जीव मात्र इस क्षण अपने को सनाथ और सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं । उनके सुख का पार नहीं । नारकीय जीव तक इस क्षण सुख की अनुभूति से रोमांचित हैं। पर क्या यह मात्र क्षणिक माया है ? सदा की भाँति फिर लोक को उसी तरह अपने कुटिल भाग्य के भरोसे छूट जाना होगा ? ___ 'हे निखिल के नाथ, सर्व के परित्राता, कोई ऐसा त्राण का उपाय हमें बतायें, कि हर जीवात्मा स्वतन्त्र, स्वाधीन हो कर, नित्य सुख में अवस्थित हो सके । और हे देवाधिदेव, जब तक विनाश, क्षय, जरा, रोग और मृत्यु है, उनकी अधीनता है, तब तक सुख कहाँ ? क्या इन्हें जय किया जा सकता है ? क्या प्राणी इनसे परे हो कर अमर जीवन जी सकता है ? इनसे निस्तार का कोई चरम उपाय बतायें, हे महाकारुणिक प्रभु !'
एक असीम नीरवता में सब स्तब्ध हो रहे । बोध पाने को उत्कंठित, उद्ग्रोव । · · · और योगी ऋषभसेन के ध्यान में अकस्मात् झलका : __ सृष्टि के केन्द्र में अवस्थित महाबिन्दु की अस्मिता प्रकम्पित हुई । उसमें से विस्तारित होते बिम्ब की तरह नाद उत्सरित होने लगा । वह गहन से गहनतर होता हुआ मर्वत्र व्यापने लगा । और सहसा ही उसमें से असंख्य कलाएँ फूटने लगीं । दो त्रिकोण परस्पर आलिंगित दिखाई पड़े । अनादि लिग और आद्या योनि का परिरम्भण । उसमें से निखिल को आप्लावित करती ओंकार ध्वनि उठने लगी। अव्यय अक्षर, स्वयम् क्षरित होने लगे । और उनमें से आदिम सृष्टि मानो प्रत्यक्ष आँखों आगे उमड़ने लगी। तुरीयातीत प्रभु तुरीयमान हुए । और सहसा ही तुरीया वाक्मान हुई । एक निरक्षरी दिव्य-ध्वनि अनाहत सुनायी पड़ने लगी.. ।
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