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प्रथम धर्म-देशना [श्रावण कृष्णा प्रतिपदा : ई. पू. छठवीं-सदी]
आषाढ़ी पूर्णिमा की सन्ध्या । निरभ्र आकाश में सहसा ही बादल गहराने लगे । हटात् उनमें एक प्रच्छन्न सहासमुद्र गरजने लगा । सारा ब्रह्माण्ड जैसे एक प्रकाण्ड मृदंग की तरह बजने लगा । तुमुल गर्जना करते मेघों की गोद में बिजली कामिनी की तरह बल खाने लगी । वह छटपटाती हुई, सौ-सौ भंगों में समर्पित होने लगी।
__ और सारी रात अविराम झड़ियाँ बरमती रहीं । समवसरण का चैत्य वृक्ष हहराता हुआ डोलता रहा । पर उसके तले ध्रुव 'प्रतिच्छन्दा' नामा कक्ष में भगवान निश्चल, अपने आप में विश्रब्ध हैं । और उनके भीतर मानो सारी सृष्टि एक विराट् वीणा की तरह बज रही है। यह परम मिलन का महोत्सव है । आकाश गल-गल कर माटी में मिल रहा है । और माटी आकाश हो रही है ।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा की पौ फूटने के साथ ही अचानक झड़ियाँ रुक गईं। आकाश क्षीर-स्फटिक की तरह स्वच्छ हो गया । समवसरण में देवों के वृन्दवाद्य बजने लगे । शंख, घंटा, घड़ियाल की एकतान ध्वनियाँ सारे लोकालय को मंगल आवाहन देने लगीं। अप्सराओं और इन्द्राणियों की नृत्य-झंकार तमाम चराचर को आनंद से उन्मेषित करने लगी।
देखते-देखते मुनि, मानुष, पशु, तिर्यंच और देवों के समूह समवसरण की सभाओं में उमड़ने लगे। सारे लोकालोक जैसे नाकुछ समय में ही वहाँ आ कर उपस्थित हो गये।
औचक ही एक गहन प्रतीक्षा की निस्तब्धता सर्वत्र छा गई । विपुलाचल के शीर्ष पर एकाएक धीरे से दिवो-दुहिता ऊषा ने अपना धूंघट उठाया । और सहसा ही प्रभु गंधकुटी की सीढ़ियाँ चढ़ते दिखाई पड़े । अगले ही क्षण वे अपने
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