SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'नग्न हो कर निखिल रूप-सौन्दर्य में नित्य-निरन्तर रमण कर, कवि-योगी प्रभास ।' 'मैं नित्य सौन्दर्य, नित्य भोग को सम्यक् देख रहा हूँ, जान रहा हूँ, सम्यक् भोग रहा हूँ, प्रभु । मैं नग्न से नग्नतर हो रहा हूँ।' 'शास्ता के ग्यारहवें गणधर का पद तुम्हारी प्रतीक्षा में है, बाल भागवत प्रभास । रूप-सौन्दर्य के सर्जनकारों के बीच शाश्वती सुन्दरी का वहन करो, आयुष्यमान् ।' · · ·और विपल मात्र में ही प्रभास कौडिन्य, अपने तीन सौ शिष्यों सहित दिगम्बर हो कर ‘कवीनाम् कवि' भगवान् के अनुगत, शरणागत हो गये । अन्तिम गणधर प्रभास को ऐन्द्रिला ने अपनी कोमल बाहु का सहारा दे, पद्मराग फूलों के सिंहासन पर अभिषिक्त किया। उनके शिष्य, समुदाय में अनुप्रविष्ट हो गये । जयध्वनि गुंजित हुई : 'शाश्वती सुन्दरी के नित्य भोक्ता भगवान जयवन्त हों।' वह आषाढ़ी पूर्णिमा का दिन था। उस एक दिन में ही आर्यावर्त के चारहज़ार-चार-सौ-ग्यारह श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने श्रीगुरुनाथ महावीर का अनुगह प्राप्त कर, जिनेश्वरी दीक्षा का वरण किया । तब वे 'एकोऽहम् द्वितीयो नास्ति भगवान', 'एकोऽहम् बहुस्याम्' हो कर सारे लोक और काल में व्याप जाने को प्रस्तुत हुए। चार हजार चार सौ ग्यारह शिष्य-समुदाय से मण्डित उन प्रभु के भीतर, मानो लोक का विराट् शरीर सामने प्रत्यक्ष हो उठा था । कहते हैं कि उसी दिन से आषाढ़ी पूर्णिमा लोक में गुरु-पूर्णिमा के नाम से प्रतिष्ठित हो गयी। क्योंकि उस दिन सकल चराचर लोक को श्रीगुरु की प्राप्ति हुई थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy