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'मिलता है, पर रह-रह कर भंग हो जाता है, उसमें सातत्य नहीं। वह टिकता नहीं, बदल-बदल जाता है । उसमें ठहराव नहीं, मुकाम नहीं, उद्वेग. है, परायापन है। अनिश्चय है, आकुलता है, भंगुरता है।'
रूप-सौन्दर्य में ही नित्य, निराकुल, निरन्तर भोग और काम चाहता है, आयुष्यमान ?'
'आपने मेरे मन को अन्तिम बात बता दी, भन्ते । मेरे सर्वकामपूरन प्रियतम,
प्रभु !'
'रूप और अरूप, दोनों में उस सुख को केवल मुक्तात्मा भोग सकता है, देवानुप्रिय । मुक्त हो, वत्स, और सारी भुक्तियाँ तेरी चरण-चेरियाँ हो कर रहेंगी। देख वत्स, अर्हत् के इस समवसरण में लोक का कौन-सा रूप-सौन्दर्य, भोग और काम नहीं है ? क्या इससे बड़ा और परे कोई सौन्दर्य, ऐश्वर्य, भोग कहीं है ?'
'नहीं है, भगवन् । मैं प्रतिबुद्ध हुआ, भन्ते ।'
'बाल भागवत कवि प्रभास, मोक्ष का विकल्प भी त्याग दे । जीवन को पूर्ण योग पूर्वक, तल्लीन भाव से भोग, जान और जी जा, प्रभास । और मुक्ति स्वयं तुझे खोजती हई आ जायेगी, सौम्य । वह अनायास तेरा आलिंगन कर लेगी। कविर्मनीषी परिमुः स्वयम्भुः। तेरे लिए कोई बन्धन नहीं । निःशंक, निर्द्वन्द्व और निर्बन्धन् हो कर जीवन को जियो कवि, तो जिनेश्वर सदा मोक्ष बन कर तुम्हारे साथ विचरेंगे। कवि-योगी विधि-निषेध से ऊपर है । कवन में जीवन को जीता जा, रचता जा कवि, और मोक्ष तेरे लिए अनावश्यक हो जायेगा। तेरा हर भोग, तेरी कर्म-निर्जरा होगी। निश्चिन्त विचर, प्रभास । तू अनुगृहीत हुआ, तू निर्द्वन्द्व हुआ, कौडिन्य । तू अनायास मुक्त हो जायेगा। ___ 'मैं मुक्ति नहीं जीवन चाहता हूँ, भगवन् । सतत और निरन्तर, अमर और अबाध जीवन ।'
'एवमस्तु, आयुष्यमान् । यही कवि के योग्य है । जिनेश्वरी सरस्वती का कवि, अनन्तकाल जीवन में ही मुक्त हो कर, निरन्तर भुक्त होता रहेगा, देवानुप्रिय। एवमस्तु ।' ___ हे मेरे एकमेव आत्मन्, सारे भोगों में मैं केवल तुम्हारा ही आस्वादन
करूँ !'
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