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________________ ७८ 'जीने की चाह तुम में है, तो जीवन अनिवार्य है । और जीवन में अमरत्व की अभीप्सा है, तो अक्षर अक्षुण्ण आस्मा है ही। और आत्मा है, तो सातत्य और जन्मान्तर है ही । अमर जीवन है ही। लोक-परलोक है ही, आयुष्यमान् ।' 'उद्गत हुआ भन्ते, उद्बुद्ध हुआ भन्ते । तद्गत हुआ भन्ते । नित्य भी हूँ, और सतत हो रहा हूँ, भन्ते । जन्म-जन्मान्तर, लोक-लोकान्तर, काल-कालान्तर के द्वार मुझ में खुल रहे हैं, भगवान् ।' 'जिनेश्वरी कृपा ने तुम्हें कृतार्थ किया, मेतार्य । शास्ता के दसवें गणधर का पद तुम्हारी प्रतीक्षा में है । मुझ जैसे हो कर, मेरे पास आओ।' और तीन सौ अन्तेवासियों सहित मेतार्य हारीत भगवान की तरह ही दिगम्बर हो कर, उनके समक्ष प्रणिपात में विनत हो गये । भगवान ने मंत्र-दर्शन दिया : ॐ नमो अर्हन्ताणम् · · · ॐ नमो उवज्झायाणम् ..' जयध्वनि गुंजायमान हुई : 'लोकालोक के ज्ञाता प्रभु जयवन्त हों।' 'अतिभद्रा के पुत्र, प्रभास कौडिन्य । सोलह वर्ष के सुकुमार कवि । तुम्हें मोक्ष पर सन्देह है !' 'मोक्ष परिकल्पना मात्र लगता है, प्रभु । वह पदार्थ नहीं, वह सत्ता नहीं। सो अनुभव्य नहीं, गम्य नहीं, प्राप्य नहीं । रूपातीत में मेरी आस्था नहीं, प्रभु । मैं रूप और सौन्दर्य में ही मोक्ष देखता हूँ, भन्ते।' 'तुम कवि हो, वत्स, मुक्तिकामी नहीं, भुक्तिकामी हो । मोक्ष नहीं, भोग चाहते हो । लेकिन नित्य भोग, नित्य काम चाहते हो न?' 'मेरी पीड़ा बोल रहे हैं, प्रभु । मेरे वल्लभ !' 'पीड़ा ही प्रज्ञा की जनेता है, प्रभास । पूछता हूँ, वत्स, मोक्ष तेरा काम्य ही नहीं, तो पीड़ा किस लिए? क्या पाने के लिए ?' 'नित्य भोग, नित्य काम, नित्य सुख ।' 'रूप-सौन्दर्य में वह नहीं मिला तुझे ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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