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कर्म-संकुल कलिकाल में, कर्म-बन्धन के बीच ही मोक्ष की लीला होगी । भर्ग की उसी नूतन अग्नि के संवाहक बनो, मंडिक वासिष्ठ । तथास्तु ।'
'तीन सौ इक्यावन परिव्राजक नितान्त नग्न बालकों की तरह भगवान के श्रीपाद में यथास्थान उपविष्ट हो गये ।
जयकार गूंज उठी :
'महर्षि मैत्रावरुण - वसिष्ठ जयवन्त हों । परम वासिष्ठ भगवान महावीर जयवन्त हों ।'
'आ गये काश्यप मौर्यपुत्र ! शास्ता के एक और गणधर । काश्यप वर्द्धमान के रक्तवंशी । केवली को तुम्हारी प्रतीक्षा थी । अर्हत् अप्यायित हुए ।'
'अपूर्व है मिलन की यह अनुभूति, देवार्य ! मेरी आत्मा चिर काल से इसी को खोज रही थी । लेकिन ?'
'सारे देवलोक यहाँ उपस्थित हैं, फिर भी तुम्हें उनके होने में संशय है, काश्यप ?'
'ऐन्द्रिक ऐश्वर्य की यह सीमा है, भन्ते । और अन्तीन्द्रिक ऐश्वर्य की यह भूमा है, भन्ते । इसे देख कर भी, इसके होने पर विश्वास नहीं होता । क्योंकि देश-काल में यह अपूर्व और असम्भव है ।'
'यह कैवल्य की भूमा का राज्य है, काश्यप । यहाँ असीम भी सीमा में उदीयमान है, प्रतीयमान है । प्राकट्यमान है । किन्तु वत्स, तुझे अपनी आँख और अनुभूति तक पर भरोसा नहीं ? इसी चरम नकार पर परम सकार उतरेंगे, देवानुप्रिय ! '
'प्रत्याशी हूँ जिनेश्वर ! किन्तु श्रुति कहती है कि
'हाँ, आयुष्यमान्, श्रुति कहती है कि : को जानाति मायोपमान् गीर्वाण निन्द्रयम्रवरुण कुबेरादीन् । अर्थात् इन्द्र, यम, वरुण कुबेर सब स्वप्न - माया हैं, इन्हें कौन जानता है । और फिर ऋग्वेद संहिता यह भी कहती है : अपाम सोममृता अभूमागमन् ज्योतिरविदाम् देवान् । किं नूनमस्मातृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य । यह कथन स्वर्ग को सकारता है । इन दो विरोधी कथनों के बीच तुम्हारी उलझन का अन्त नहीं ? परम समाधान तुम्हारे समक्ष मूर्तिमान है, काश्यप ।'
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