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'मेरे अन्तर में रेंगते वाक्यों तक को प्रभु पढ़ रहे हैं ! मेरी हर उलझन और संघर्ष में साथ चल रहे हैं । वेद और उपनिषद् ने जिसके स्वप्न देखे, जिसकी अभीप्सा की, वह यहाँ मूर्तिमान है।'
'फिर भी प्रत्यायित नहीं हो रहे, काश्यप ?' _ 'प्रश्न तो सारे सिरा गये, परमात्मन । पर ऐन्द्रिक बोध अपनी सीमा पर अटल है। देख कर भी अनदेखा करे, यह आदत है हठीले मन और बुद्धि की। जो इन्द्रियों के चालक हैं । क्या स्वर्ग का कहीं कोई मूर्त अस्तित्व है, या अपने अभीप्सित परम सुख का यह स्वप्न या आदर्श मात्र देखा है, चिरन्तन् इन्द्रिय सुख की लालसा ने ?'
_ 'वह मूर्त है, काश्यप, लोक में यथा स्थान । वह सभी परिवर्तमान पदार्थों की तरह भंगुर हो कर भी, अस्तित्वमान है। वह तुम्हारे समक्ष यहाँ प्रत्यक्ष है, फिर भी तुम संदिग्ध हो ?' ___'अपूर्व को आँखों देख कर भी, अन्तर में प्रतीति नहीं हो रही। असम्भव को सम्भव देख कर मन की शंका परकाष्ठा पर है।' __'विश्व अनन्त है, पदार्थ अनन्त है, सो वह सदा अपूर्व है, काश्यप । उसकी क्षण-क्षण की हर नयी पर्याय अपूर्व है । यह सर्वज्ञ का राज्य है, यहाँ हर अपूर्व प्रत्यक्ष हो रहा है, हर असम्भव सम्भव हो रहा है। सृष्टि के इस रहस्य को.अवलोको, काश्यप, बूझो काश्यप।'
'तत्त्वं के सूक्ष्म परिणमन का किंचित् बोध हो रहा है, स्वामिन् ।'
'सुख, और सुख, और भी सुख ! इसी ऐन्द्रिक उत्कंठा का मूर्तन है, स्वर्ग, काश्यप । अरबों वर्ष इस सुख का भोग कर के भी देव आख़िर मर जाते हैं, मौर्य, शाश्वत और अविनाशी सुख की अभीप्सा ले कर । उसी अभीप्सा का मूर्तन है अर्हत्, काश्यप । देख, देख, देख। समझ, समझ, समझ । प्रबुद्ध भव, काश्यप ।'
'प्रत्यायित हुआ, सर्वज्ञ जातवेद। शब्दातीत ज्ञानी ने, शब्द तक को मेरे लिए आलोकित कर दिया, सत्य को उसमें मूर्त कर दिया मेरे लिए । स्वर्गों का साक्षात्कार हुआ, भन्ते, उन्हें समग्र, एकाग्र भोग रहा हूँ, जी रहा हूँ, इस क्षण । पर हे अनन्त सुख, केवल तुम्हें पाना चाहता हूँ !...'
'तद्रूप भव्, काश्यप । मद्रूप भव् काश्यप !' 'हो रहा हूँ, भगवान् । आदेश, आदेश, शास्ता।'
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