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'श्रुति त्रिकाल सत्य है, वामिष्ट । पर अनुभव से उसे भावित करना होगा । तभी वह बोध हो सकती है। विगुण, विभु और अबद्ध जिसे कहा है, वह मुक्तात्मा है । 'अबद्ध' में बन्धन का कहीं, कभी होना गर्भित है। और बन्धन के अनुभव में, मोक्ष की कामना और सम्भावना गभित है । ग्रंथि कहीं है, कि निग्रंथ है । बद्ध कहीं है, कि 'अबद्ध' कहीं है।'
'लेकिन भगवन्, ब्रह्म-विद्या कहती है कि इन दोनों से जो परे है, केवल वही सत् है, और सब अविद्या है, आभास है, माया है । उपाधि के कारण ही सुख-दुख, अपना-पराया, राग-द्वेष आदि द्वंद्वों का अनुभव है । वह माया है, उसका अस्तित्व नहीं । सत् केवल एक वह ब्रह्म है, अन्य सब पदार्थ और अनुभव असत् हैं । हैं ही नहीं।'
'जो नहीं है, उसका कथन क्यों करना पड़ा ? इस नकार में उस 'असत्' का स्वीकार है । उस असत् को उपाधि और माथा कहना पड़ा । अन्य शब्द का आविर्भाव स्वयं, अन्य सत्ता का पता दे रहा है । जो अभी और यहाँ का यथार्थ है, वास्तव है, जो प्रत्यक्ष अनुभव्य और संवेद्य है, उसका नकार सत्ता का अपूर्ण साक्षात्कार है । वह मिथ्या है और पीड़क है। उसमें समाधान नहीं। मंडिक वाशिष्ठ, सत्ता केवल स्थिति नहीं, गति भी है। केन्द्र में भी वही है, प्रसार में भी वही है । गति में प्रसारित होना विश्व-विस्तार है। वह सीमा और बन्धन का खेल है। स्थिति में लौटना, मोक्ष है। मुक्तात्मा स्थिति और गति में एक साथ खेलता है । इसी से वह बन्ध-मोक्ष से रहित है। वह पूर्ण पुरुष है । लेकिन बन्ध है, अपूर्णता है, कि मोक्ष है, पूर्णता है। सत्ता अनेकान्त है। उसे सापेक्ष देखो, सापेक्ष जानो, सापेक्ष कहो, मंडिक वासिष्ठ । जो निरपेक्ष पूर्ण सत्ता है, वह केवल अनुभव्य है । वह अनिर्वच है । पूछो नहीं, जानो नहीं, केवल अनुभव करो, मंडिक !'
और भगवान को भृकुटी में से एक किरण फूट कर मंडिक का अन्तस्तल बींध गयी । वह मौन. पृच्छाहीन, समाधिस्थ हो रहा । उसके साढ़े तीन सौ अन्तवासी भी क्षण भर निर्विचार, प्रश्नातीत, ध्यानस्थ हो रहे ।
'स्थिति में उपविष्ट हुए तुम, तत्त्व हुए तुम । अब बाहर आओ, अस्तित्व हो ओ, गति में विहरो तुम । दिगम्बर हो कर गतिमान विश्व में निर्बाध विचरण करो । गतिमान लोक के आर्त्त और बद्ध जीवात्माओं को स्थिति का मंत्र-दर्शन प्रदान करो। स्थिति और गति में सम्वाद के स्वर साधो। ताकि मेरे युग-तीर्थ में मनुष्य जीवन्मुक्त हो कर, जीवन को जी चाहा भोगे और खेले।
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