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________________ ७२ 'श्रुति त्रिकाल सत्य है, वामिष्ट । पर अनुभव से उसे भावित करना होगा । तभी वह बोध हो सकती है। विगुण, विभु और अबद्ध जिसे कहा है, वह मुक्तात्मा है । 'अबद्ध' में बन्धन का कहीं, कभी होना गर्भित है। और बन्धन के अनुभव में, मोक्ष की कामना और सम्भावना गभित है । ग्रंथि कहीं है, कि निग्रंथ है । बद्ध कहीं है, कि 'अबद्ध' कहीं है।' 'लेकिन भगवन्, ब्रह्म-विद्या कहती है कि इन दोनों से जो परे है, केवल वही सत् है, और सब अविद्या है, आभास है, माया है । उपाधि के कारण ही सुख-दुख, अपना-पराया, राग-द्वेष आदि द्वंद्वों का अनुभव है । वह माया है, उसका अस्तित्व नहीं । सत् केवल एक वह ब्रह्म है, अन्य सब पदार्थ और अनुभव असत् हैं । हैं ही नहीं।' 'जो नहीं है, उसका कथन क्यों करना पड़ा ? इस नकार में उस 'असत्' का स्वीकार है । उस असत् को उपाधि और माथा कहना पड़ा । अन्य शब्द का आविर्भाव स्वयं, अन्य सत्ता का पता दे रहा है । जो अभी और यहाँ का यथार्थ है, वास्तव है, जो प्रत्यक्ष अनुभव्य और संवेद्य है, उसका नकार सत्ता का अपूर्ण साक्षात्कार है । वह मिथ्या है और पीड़क है। उसमें समाधान नहीं। मंडिक वाशिष्ठ, सत्ता केवल स्थिति नहीं, गति भी है। केन्द्र में भी वही है, प्रसार में भी वही है । गति में प्रसारित होना विश्व-विस्तार है। वह सीमा और बन्धन का खेल है। स्थिति में लौटना, मोक्ष है। मुक्तात्मा स्थिति और गति में एक साथ खेलता है । इसी से वह बन्ध-मोक्ष से रहित है। वह पूर्ण पुरुष है । लेकिन बन्ध है, अपूर्णता है, कि मोक्ष है, पूर्णता है। सत्ता अनेकान्त है। उसे सापेक्ष देखो, सापेक्ष जानो, सापेक्ष कहो, मंडिक वासिष्ठ । जो निरपेक्ष पूर्ण सत्ता है, वह केवल अनुभव्य है । वह अनिर्वच है । पूछो नहीं, जानो नहीं, केवल अनुभव करो, मंडिक !' और भगवान को भृकुटी में से एक किरण फूट कर मंडिक का अन्तस्तल बींध गयी । वह मौन. पृच्छाहीन, समाधिस्थ हो रहा । उसके साढ़े तीन सौ अन्तवासी भी क्षण भर निर्विचार, प्रश्नातीत, ध्यानस्थ हो रहे । 'स्थिति में उपविष्ट हुए तुम, तत्त्व हुए तुम । अब बाहर आओ, अस्तित्व हो ओ, गति में विहरो तुम । दिगम्बर हो कर गतिमान विश्व में निर्बाध विचरण करो । गतिमान लोक के आर्त्त और बद्ध जीवात्माओं को स्थिति का मंत्र-दर्शन प्रदान करो। स्थिति और गति में सम्वाद के स्वर साधो। ताकि मेरे युग-तीर्थ में मनुष्य जीवन्मुक्त हो कर, जीवन को जी चाहा भोगे और खेले। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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