SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ 'निरंजन आत्मरूप दिगम्बर हो जा, अग्निवश्यायन । अग्नि तो सदा दिगम्बर हैं। आवरण मात्र उन्हें असह्य हैं । जो उन्हें ढाँकेगा, वह जल कर भस्म हो जायेगा । पशु भी नहीं, मनुष्य भी नहीं, गति भी नहीं, योनि भी नहीं। वह हो जा, जिसमें से सब योनियाँ आती हैं, सब लिंग उठते हैं : और फिर उसी में सब निर्वाण पा जाते हैं। जोत निरंजन, जोत दिगम्बर । एवमस्तु, आयुष्यमान् ।' जयकारे गूंज उठी: 'गुरुणां गुरु त्रैलोक्येश्वर भगवान महावीर जयवन्त हों !' . . . पाँचसौ-एक जातरूप दिगम्बर पुरुष पशुपतिनाथ महावीर के समक्ष नतमाथ समर्पित हैं । प्रभु-प्रदत पिच्छी-कमण्डल से मण्डित हैं, वे आर्हत् धर्म के भावी परिव्राजक । आदेश सुनायी पड़ा : 'अग्निवैश्यायन सुधर्मा, तुम्हीं काल-शेष में अवशिष्ट रह कर, जिनेश्वरों की कैवल्य-ज्योति को कलिकाल में प्रसारित करोगे । तुम्ही देवात्मा अग्नि को पाप के नरकों में ले जाकर, पापियों को अनायास अपने ही आलोक से उज्ज्वल और पवित्र कर दोगे । उपनिषत् होओ, अंगीरसो !' . अग्निवश्यायन सुधर्मा गन्धकुटी में पाँचवें गणधर के आसन पर आरूढ़ हुए। पाँच सौ शिष्य परिक्रमा में उपविष्ट हुए । 'आ गये मंडिक वासिष्ठ ! मैत्रावरुण के वंशज । तुम्हें बन्ध और मोक्ष के विषय में शंका है ?' _ 'सर्वज्ञ प्रभु से क्या छुपा है। मेरे तन-मन के एक-एक परमाणु में रमण कर रहे हो, स्वामिन् । मेरी ग्रंथियों का मोचन करो, अर्हत् । मेरे हर प्रश्न का उत्तर केवल तुम दे सकते हो, हे जातवेद ।' ___ 'बन्ध और मोक्ष नहीं मानता, तो ग्रंथि-मोचन किसका चाहता है ? तेरी वेदना साक्षी है, तेरा अनुभव प्रत्यय है, तेरे शब्द प्रमाण हैं, बन्धन और मोचन के । तेरी अभीप्सा स्वयं तेरा उत्तर है, आत्मन् ।' 'लेकिन शास्त्र तो आत्मा को त्रिगुणातीत, अबद्ध और विभु बतावा है, भन्ते । श्रुति-वाक्य है : 'न एष त्रिगुणो विमुर्न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा, नवा एष बाह्याभ्यन्तरं वा वेद ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy