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'निरंजन आत्मरूप दिगम्बर हो जा, अग्निवश्यायन । अग्नि तो सदा दिगम्बर हैं। आवरण मात्र उन्हें असह्य हैं । जो उन्हें ढाँकेगा, वह जल कर भस्म हो जायेगा । पशु भी नहीं, मनुष्य भी नहीं, गति भी नहीं, योनि भी नहीं। वह हो जा, जिसमें से सब योनियाँ आती हैं, सब लिंग उठते हैं : और फिर उसी में सब निर्वाण पा जाते हैं। जोत निरंजन, जोत दिगम्बर । एवमस्तु, आयुष्यमान् ।'
जयकारे गूंज उठी: 'गुरुणां गुरु त्रैलोक्येश्वर भगवान महावीर जयवन्त हों !' . . . पाँचसौ-एक जातरूप दिगम्बर पुरुष पशुपतिनाथ महावीर के समक्ष नतमाथ समर्पित हैं । प्रभु-प्रदत पिच्छी-कमण्डल से मण्डित हैं, वे आर्हत् धर्म के भावी परिव्राजक ।
आदेश सुनायी पड़ा :
'अग्निवैश्यायन सुधर्मा, तुम्हीं काल-शेष में अवशिष्ट रह कर, जिनेश्वरों की कैवल्य-ज्योति को कलिकाल में प्रसारित करोगे । तुम्ही देवात्मा अग्नि को पाप के नरकों में ले जाकर, पापियों को अनायास अपने ही आलोक से उज्ज्वल
और पवित्र कर दोगे । उपनिषत् होओ, अंगीरसो !' . अग्निवश्यायन सुधर्मा गन्धकुटी में पाँचवें गणधर के आसन पर आरूढ़ हुए। पाँच सौ शिष्य परिक्रमा में उपविष्ट हुए ।
'आ गये मंडिक वासिष्ठ ! मैत्रावरुण के वंशज । तुम्हें बन्ध और मोक्ष के विषय में शंका है ?'
_ 'सर्वज्ञ प्रभु से क्या छुपा है। मेरे तन-मन के एक-एक परमाणु में रमण कर रहे हो, स्वामिन् । मेरी ग्रंथियों का मोचन करो, अर्हत् । मेरे हर प्रश्न का उत्तर केवल तुम दे सकते हो, हे जातवेद ।' ___ 'बन्ध और मोक्ष नहीं मानता, तो ग्रंथि-मोचन किसका चाहता है ? तेरी वेदना साक्षी है, तेरा अनुभव प्रत्यय है, तेरे शब्द प्रमाण हैं, बन्धन और मोचन के । तेरी अभीप्सा स्वयं तेरा उत्तर है, आत्मन् ।'
'लेकिन शास्त्र तो आत्मा को त्रिगुणातीत, अबद्ध और विभु बतावा है, भन्ते । श्रुति-वाक्य है : 'न एष त्रिगुणो विमुर्न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा, नवा एष बाह्याभ्यन्तरं वा वेद ।'
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