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शृगाल न होना चाहे, तो कोई नियति तुझे वह नहीं बना सकती । त् ही अपना नियन्ता, सो तू ही अपनी नियति है, अग्निवैश्यायन !'
_ 'लेकिन श्रुति में भी परस्पर विरोध है, भगवन । वेद कहता है : पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते : पुरुष सदा पुरुष ही होता है, पशु सदा पशु ही होता है। आप्त-वाक्यों में ही जब विरोध हो, तो निश्चय कसे हो, भगवन् । लगता है, ज्ञान मात्र अनुमान है। इसी से हर ज्ञान एक हद के बाद मिथ्या हो जाता है। अज्ञान की ऐसी लाचारी में कब तक जीऊँ भगवन् ? कैसे, कसे ?'
'श्रति में कोई विरोध नहीं, सुधर्मा, विरोध तेरी एकांगी दृष्टि में है । वेद-वाक्य का भाव ग्रहण कर, सौम्य । पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम् : अर्थात् जो पुरुष-भाव में जियेगा, वह पुरुष जन्मेगा, जो पशु-भाव में जियगा, वह पशु जन्मेगा । आत्मकामी मदा पुरुष होगा, परकामी सदा पशु होगा । बुज्झह, बुज्झह, अग्निवश्यायन ।'
'आलोकित हुआ, भन्ते ! दूसरा श्रुति-वाक्य भी खोलें, भन्ते ।'
'श्रृगालो वै एष जायते य: सपुरीषो दह्यते । • • ‘जो पुरुष हो कर भी शृंगाल की तरह कपट-चेष्टा में जियेगा, वह शृगाल होगा ही भवान्तर में, सुधर्मा । जैसा भाव, जैसा विचार, वैसा ही होगा तुम्हारा आकार, प्रकार, अवतार । तू सम्बुद्ध सर्वसमर्थ आत्मा है, सौम्य। जो चाहेगा, वही तू हो जायेगा। अपने अस्तित्व का निर्णायक तू स्वयं ही है, तू स्वयं ही अपना कर्ता, धर्ता और हर्ता है। फिर भय किस बात का ?'
'आश्वस्त हुआ, भन्ते । अभय हुआ, भन्ते । अप्रमत्त हुआ, भन्ते !' 'स्वायम्भुव, स्वयंप्रकाश, स्व-नियन्ता हो जा, आयुष्यमान् ।'
'अधिक-अधिक स्वयं को देख रहा हूँ, स्वयं को जान रहा हूँ, स्वयं हो रहा हूँ, भन्ते । श्रीगुरु को पा कर अपने को पा गया, भन्ते ।
'ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति । द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादि लक्ष्यम् ॥ एक नित्यं विमलचलं सर्वघीसाक्षिभूतं ।
मावातीतंत्रिमल रहितं सद्गुरुम् तं नमामि ।।' 'तथास्तु, सुधर्मा । यही तुम्हारा स्वरूप है, इसे साक्षात् करो ।'
'अपने पाँच सौ शिष्यों सहित श्रीचरणों में समर्पित हूँ, त्रिलोकीनाथ प्रभु ! आदेश, आदेश !'
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