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ही नग्नतत्त्व का आलिंगन सम्भव है । तत्त्व को पाये बिना अस्तित्व असह्य हो जाता है ।'
'हे परम आप्त, मैं अपने पाँच सौ अन्तेवासियों सहित श्रीचरणों में शरणागत हूँ । हमें अपने ही-सा बना लें, भगवान् ! '
चारों ओर से जयकारें गूंज उठीं :
त्रिलोक गुरु भगवान महावीर जयवन्त हो ! त्रिकाल गुरु भगवान अर्हन्त जयवन्त हो !
व्यक्त भारद्वाज अपने पाँच सौ शिष्यों सहित जिनेश्वरी दीक्षा का वरण कर दिगम्बर हो गए। भगवान को साष्टांग प्रणिपात कर शिष्यमण्डल परिक्रमा में उपनिविष्ट हुआ । व्यक्त भारद्वाज को इन्द्र ने पुष्प वृष्टि के साथ गन्धकुटी में चतुर्थ गणधर के सिंहासन पर आसीन किया ।
शब्द फिर ब्रह्मलीन हो कर स्तब्ध हो रहा ।
परावाक् फिर वाक्मान हुए ।
'सुधर्मा अग्निवैश्यायन ! तुम प्रतीक्षित थे, वत्स | अतिथि देवो भव ! ' 'निरंजन ज्योति ने मुझे पुकारा । अपने अस्तित्व का प्रथम बार बोध हुआ, भगवान् ! '
'हिला और धम्मिल के पुत्र, कोल्लाग सन्निवेशी उत्तम ब्राह्मण । हव्यवाहन के वंशज । तुम्हें पा कर अर्हत् आप्यायित हुए ।'
'हे सर्व के आधार, मुझे आधारित करें ।'
'अग्नि वैश्यायन सुधर्मा, अग्नियों के आत्मज । अग्नि आद्या हैं, वे निराधार में से ही प्रकट हुए हैं । वे आप ही अपने आधार हैं । स्वयमान हो, देवानुप्रिय ।'
'लेकिन कैसे, भगवन् ! आज मनुष्य हूँ, कल पशु भी हो सकता हूँ । श्रुति कहती है : शृंगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते । यानी आज मनुष्य हूँ, तो भवान्तर में सियाल भी हो सकता हूँ । कितना अनिश्चित और भयावह है यह अस्तित्व ! इससे मन बहुत विषण्ण और उचाट है, भगवन् ।'
'निर्णायक नियति नहीं, नियन्ता है, सुधर्मा । तू यह शरीर नहीं, इसका स्वामी और नियन्ता पुरुष है । संकल्प तू कर सकता है, शरीर नहीं । तँ
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