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'मेरे जी में खटक है, भगवन् । अशान्ति का पार नहीं ।'
' व्यक्त हो कर भी, व्यक्त को अस्वीकार करोगे, भारद्वाज ? तुम्हें ब्रह्म के सिवाय अन्य भूत पदार्थों की वास्तविकता में सन्देह है, आयुष्यमान् ! '
'आत्मन्, सर्वज्ञ के सिवाय कौन मेरे भीतर यों समवेदित हो सकता है ! शंका का निरसन करें, श्रीगुरुनाथ ।'
'मुझे समक्ष देख कर भी देखने से इनकार करोगे, सौम्य ? मैं भी नहीं, तुम भी नहीं, नाम-रूप- संज्ञात्मक पंचभूत नहीं ? केवल ब्रह्म ? केवल अव्यक्त, अरूप, अनाम ? तो कौन हो तुम कौन हूँ मैं ? तुम यहाँ क्यों आये ? शंका किस पर कर रहे हो ? ब्रह्म के सिवाय भूत है ही नहीं, तो उस पर शंका कैसी ? यह 'अव्यक्त' संज्ञा कहती है, कि वह भी है, जो व्यक्त नहीं है । तो स्थापित हुआ । भाषा स्वयं भूत की साक्षी दे रही है । भाषा प्रतिपल के व्यक्त संवेदन का व्यंजन है । इसी से तो शब्द को भी ब्रह्म कहा गया है । शब्द में जो सहज ही व्यक्त है, उसे बुद्धि के तर्क से तोड़-मरोड़ कर क्यों दुर्बोध बना रहे हो, भारद्वाज ? भूत को ब्रह्म तक पहुँचे बिना निस्तार नहीं । और ब्रह्म hat भूत हुए बिना जानने का उपाय नहीं । हमारे वास्तविक जीवन की प्रति पल की अभिव्यक्ति में भूत और ब्रह्म परस्पर एक दूसरे को प्रमाणित कर रहे हैं । व्यक्त भारद्वाज, भूत को देख, मुझे देख अपने को देख । सत्ता ममक्ष खड़ी है, नग्न । देहधारी के बिना देही की साक्षी कौन दे ? देख देख जान जान, जी जी, व्यक्त भारद्वाज । सत्ता प्रत्यक्ष है, उसे प्रमाण क्या ? '
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'सर्वसत्ताधीश भगवान को साक्षात् कर रहा हूँ ।'
'तथास्तु, आयुष्यमान् ।'
'विकल्प समाप्त हो गया, भन्ते । वस्तु को केवल देख रहा हूँ, केवल जान रहा हूँ, केवल जी रहा हूँ । तन्मय हुआ, भन्ते । तद्गत, तथागत, वास्तव मूर्ति भगवान मेरे समक्ष हैं। भूत और ब्रह्म का निर्णय उनमें आपोआप हो रहा है । वही मुझ में झलक रहा है, इस क्षण । वचनातीत है यह सौन्दर्य, हे समय सुन्दर भगवान् ।'
'तद्रूप भद् भारद्वाज, मद्रूप भव् भारद्वाज !
'आदेश, आदेश, अनिरुक्त प्रजापति श्रीगुरुनाथ ।'
'दिगम्बर हो जा और देख, कि ब्रह्म क्या है, भूत क्या है । नग्न हो कर
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