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'भाषा का यह बोध अपूर्व है, भन्ते । यह व्याकरण नहीं, अव्याकरण है। यह विश्लेषण नहीं, संश्लेषण है। यह भेद भी है, अभेद भी है ।'
'सत्ता अनेकान्त है, इसी से भाषा भी अनिवार्य अनेकान्तिक है. गौतम । सत् द्वैताद्वैत है, भेदाभेद है-एक बारगी, इसी से भाषा भी अनेकार्थी है, ध्वन्यात्मक है । अपने ही आत्यंतिक अवबोधन से जान, गौतम । अपने ही ब्रह्मनाद में मत्ता को सून, गौतम । भाषातीत का निर्णय भाषा में सम्भव नहीं । वह मात्र ध्वनित करती है, साक्षात्कृत नहीं कराती।' ___- 'सर्वज्ञ प्रभु ही बनें मेरा अवबोधन । मुझे शून्य करें, भन्ते, मुझे आप करें, नाथ । मेरी बुद्धि समाप्त हो गयी।'
'और भी सोच देख, गौतम। और भी समझ देख, गौतम ।'
'सोच समाप्त हुआ, भन्ते । समझ थम गयी, भन्ते। जो है, उसे केवल देख रहा हूँ, केवल जान रहा हूँ, केवल वह हो रहा हूँ। प्रश्न भी नहीं रहा, उत्तर भी नहीं रहा । बस उत्तीर्ण हो रहा हूँ, और आनन्द का पार नहीं, नाथ ।'
'सर्वज्ञ कृतार्थ हुए, गौतम ।' 'आदेश, आदेश, हे निखिलेश्वर भगवान !'
'निसर्ग हुआ तू, तो निसर्ग चर्या कर, दिगम्बर, दिगम्बर । वही चिदम्बर, वही विश्वम्भर । हे मरुतवाहन, सकल चराचर के श्वासों में कैवल्य-ज्योति प्रवाहित कर ।'
..' और ना कुछ समय में ही पांच सौ शिष्यों के मण्डल सहित, विश्व के श्वास रूप मरुतों के संवाहक' वायुभूति गौतम दिगम्बर हो गये। वे तीर्थंकर द्वाग प्रदत्त पीछी-कमण्डल से मण्डित हो. सर्वेश्वर भगवान के श्रीचरणों में समर्पित हो गये। इन्द्र ने नील कमलों के पाँवड़े बिछाये, और उन पर पग धारण करते, गन्धकुटी के सोपान चढ़ कर, आर्यश्रेष्ठ वायुभूति गौतम तृतीय कर्णिका के नीलाभ सिंहासन पर आरूढ़ हो गये।
'व्यक्त भारद्वाज का स्वागत है।'
'प्रभु ने मुझे पहचाना । अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के अधीश्वर ने मेरा नाम पुकारा। मेरा होना सार्थक हुआ ।'
'कोल्लाग सन्निवेशी। वारुणी और धनमित्र के पुत्र । महर्षि भारद्वाज के वंशावतंस। तुम आरपार समक्ष हो ।'
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