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'मरुतों के संवाहक वायुभूति गौतम ! शास्ता को तुम्हारी प्रतीक्षा थी । तुम आये । त्रिलोकीनाथ कृतार्थ हुए ।'
'श्रीचरणे शरणागत हुआ. भन्ते । पीड़ा का पार नहीं। समाधीत करें, सर्वज्ञ अर्हन्त ।'
'तुम्हारे मन में शंका है, गौतम, कि क्या देह से परे कोई देही है ? क्या शरीर से भिन्न कोई आत्मा है ?'
'वल्लभ हैं, स्वामिन् । मुझे मुझ से अधिक जानते हैं । मेरे जी का काँटा निकाल कर मुझे दिखा दिया, प्रभु । इस शंका के रहते, जीना दूभर है । यदि विनाशी शरीर से भिन्न कोई अविनाशी आत्मा नहीं, कोई अमर मैं नहीं, तो कोई क्यों जिये, कैसे जिये, किस लिए जिये ? जब नष्ट हो जाना ही मेरी एक मात्र नियति है, तो जीवन का अर्थ क्या, प्रयोजन क्या ?'
किंचित् रुक कर वे फिर बोले :
'लेकिन मर्त्य शरीर से भिन्न किसी अमर आत्मा के होने का प्रमाण क्या? श्रुति में भी विरोधी कथन है । फिर प्रत्यय कैसे हो, भगवन् ?'
'तू मरना चाहता है, गौतम ?' 'नहीं मरना चाहता, भन्ते ?' 'जो नहीं मरना चाहता, वह कौन है, आयुष्यमान् ?' 'वह मैं हूँ, भन्ते ।' 'और जो मरता है, वह कौन है आयुष्यमान?' "मैं, मेरा यह शरीर, जो मैं है !'
'त शरीर और आत्मा को भिन्न कह रहा है, गौतम । इसी से परस्पर विरोधी कथन कर रहा है । भिन्न अनुभव कर रहा है, इसी से भिन्न की भाषा बोल रहा है। भाषा मात्र अव्यक्त की अभिव्यक्ति है । अपनी भाषा आप ही सुन और अवबोधन प्राप्त कर ।' ‘यह जो मेरा शरीर है, यही तो मैं हूँ, भन्ते । भिन्न कहाँ कोई हूँ ?'
क्या विवशता है कि शरीर को 'मैं' कहने की कोई भाषा ही अस्तित्व में नहीं । सावधान गौतम, तू शरीर को 'मेरा' कह रहा है, मैं नहीं कह रहा । मैं शरीर हूँ, यह तुझे अलग से कहना पड़ रहा है । यह परोक्ष कथन है। यह तेरा प्रत्यक्ष अनुभव नहीं, परोक्ष आग्रह है । यह बुद्धि का विकल्प है, बोधि का साक्षात्कार नहीं।'
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