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'आदेश करे वायुदेव, गौतम !'
'हम सब तत्कास विपुलाचल को प्रस्थान कर जायें ।'
'क्या यज्ञ को हम अधूरा ही छोड़ जायेंगे ? अनर्थ हो जायेगा, वायुदेव शीतम । चैतन्य अंगिरा सदा को सो जायेंगे । लोक जड़ हो जायेगा ।'
'यज्ञ-पुरुष इस समय विपुलाचल की गन्धकुटी पर उतरे हैं । सहस्राब्दियों के बाद वहाँ अंगिरा देह धारण कर उपस्थित हैं । अपने एक हज़ार शिष्यों सहित देवांशी गौतमों ने गन्धकुटी के श्रीमण्डप में शत-शत हवन कुण्ड प्रज्वलित कर दिये हैं । वे सारे ब्राह्मण अपने आत्म को, अपने आत्म से ही ज्वलित कर, अपने आत्म में ही हो रहे हैं । परमाग्ति अनायास पावा से विपुलाचल पर अतिक्रमण कर गये हैं । ब्राह्मण और श्रमण के बीच एक ही चिदग्नि अविरल प्रवाहित हो गयी है ।'
· ब्रह्मलोक सुने, भूदेव सुनें, मैं सर्वज्ञ महावीर के समवसरण की परिक्रमाओं में, एक साथ लक्ष - लक्ष यज्ञ-कुण्ड धगधगायमान देख रहा हूँ । देव, दनुज, मनुज, पशु-पंखी, वहाँ उपस्थित समस्त आत्माएँ उनमें अपने कर्ममल की आहुति दे रही हैं । परात्पर यज्ञ-पुरुष के श्रीचरणों में पावा का पुनर्नवा सोमयाग अपनी पूर्णाहुति पर पहुँच रहा है । वहाँ ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण का पुनर्जन्म हुआ है । वहीं सच्चे ब्राह्मणत्व की पुनर्प्रतिष्ठा हो रही है । आओ, हम चलें वहाँ और सर्वज्ञ का साक्षात्कार कर अपने चरम प्रश्नों का समाधान पायें ।'
• • और हज़ारों उत्तम ब्राह्मणों से परिवेष्ठित आर्य वायुभूति गौतम और महायजमान सोमिल, विपुलाचल की ओर प्रस्थान कर गये । शंख, घण्टा, मृदंग, भेरियों के तुंग और तुमुल नाद से सारा आर्यावर्त यों चमत्कृत हो उठा, जैसे अचानक आकाश में वेदों के देवता प्रकाशमान हो उठे हों ।
श्री मण्डप के उपान्त भाग में आ कर पावा की यज्ञ-सभा स्तब्ध और प्रणिपात में नत है । सबसे आगे गन्धकुटी के पाद- प्रान्त में खड़े हैं वायुभूति गौतम । उनके ठीक अनुसरण में क्रमश: खड़े हैं आठ अन्य ब्रह्मण श्रेष्ठ परम श्रोत्रिय : व्यक्त, सुधर्मा, मंडिक, मौर्यपुत्र, अकम्पिक, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास । उन सब का विशाल शिष्य - मण्डल उपान्त की परिक्रमा में नम्रीभूत हो कर उपविष्ट है । सबकी दृष्टियाँ एकाग्र गन्धकुटी के चूड़ान्त पर अधरासीन प्रजापति पर लगी हैं । उन सब के अन्तरतम के संशय और प्रश्न, उनके नासाग्र पर तैर आये हैं । वे उदग्र हैं, व्याकुल हैं कि उन्हें पहचाना जाये । वे उत्कण्ठित हैं, जिज्ञासु हैं, कि उन्हें नाम कर पुकारा जाये ।
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और हठात् अन्तरिक्ष में वरुण के जल लहराने लगे । और उनमें से पर्जन्य घोषायमान होने लगे । उद्गीथ ध्वनित होने लगे । और केन्द्र पर से पुकार आयी :
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