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इस श्रीमण्डप में धधक उठे हैं। अनेक देव-देवांगना, मयूर-पिच्छियाँ और कमण्डल लिये गन्धकुटी के सोपान से उतर आये। उन्हें धारण कर, पांच सौ शिष्यों से परिवरित महर्षि अग्निभूति गौतम अपने श्रीगुरुनाथ महावीर के चरणों में समर्पित हो गये।
इन्द्र ने पीत कमलों के पांवड़े बिछाये और नमन कर गौतम का आवाहन किया । और अग्निभूति गौतम उन कमलों पर पग धारण करते, गन्धकुटी के सोपान चढ़ गये । भगवान की दृष्टि से दृष्टि मिलते ही वे जैसे एक ऊर्ध्व वलय में उत्क्रान्त हो गये । भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम के ठीक नीचे की परिक्रमा में, वे पीताभ सिंहासन पर आरूढ़ हो गये । उनका शिष्य मण्डल ज्येष्ठ गौतम के शिष्यों के साथ ही श्रीमण्डप में उत्विष्ट हो गया।
असंख्य जयकारों से समवसरण के सारे मण्डल आन्दोलित हो उठे।
पर्जन्यों के मन्द्र गभीर स्वर में आर्य वायुभूति गौतम ने पावा की विशाल यज्ञ-सभा को सम्बोधन किया :
'यजमान-शिरोमणि महायाजक आर्य सोमिल सुनें । समस्त आर्यावर्त का ब्राह्मण-मण्डल सुने । तेजमूर्ति अग्रज अग्निभूति गौतम भी अर्हत् महावीर के समवसरण में जा कर लौट न सके । वे भी पल मात्र में समाधीत और रूपान्तरित हो कर तीर्थंकर को समर्पित हो गये । महावीर की सर्वज्ञता इस क्षण सूर्य-चन्द्र की तरह आर्यावर्त के आकाश पर उजागर है । वह अब हमारे स्वीकारने या न स्वीकारने पर निर्भर नहीं करती। अब भी उसे न मानने की हठ करना, अपना ही सर फोड़ने की तरह आत्मघातक है । आर्य सोमिल निर्णय करें, समस्त ब्राह्मण समुदाय निर्णय करे । कि हमारा अगला कदम क्या हो ?
'मरुद्पुत्र वायुभूति गौतम ही निर्णायक हों। उन्हीं का वचन अब हमें प्रमाण है।'
'मेरे मन में कोई विकल्प नहीं । हम सब संयुक्त हो कर विपुलाचल पर जायें। जिस सत्ता को इन्द्र और अग्नि के अंशावतार दोनों ज्येष्ठ गौतम समर्पित हो गये, उसे आँखों देखें, कानों सुनें। सत्य का साक्षात्कार, उसके प्रत्यक्ष दर्शन और श्रवण बिना सम्भव नहीं । बेशक, हम सर्वज्ञ के आविर्भाव से आश्वस्त हुए हैं । पर उसका निश्चय तो उसके आमने-सामने खड़े हो कर ही हो सकता है। वह निश्चय किये बिना अब हम अपने अस्तित्व को कहाँ रक्खें, कैसे रक्खे, यही आज तो प्रश्नों का प्रश्न हो गया है।'
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