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'स्थिति में अद्वैत है, गौतम, अनुभूति में अद्वैत है, गौतम । किन्तु अभिव्यक्ति में द्वैत है, अनेकत्व है, द्वंद्व है, परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया है। यह महासत्ता के अन्तर्गत आवान्तर सत्ता का खेल है । इसी को जिनेश्वरों ने सात तत्त्व और नव पदार्थ का समुच्चय रूप विश्व कहा है । अभिव्यक्ति ही विश्व-लीला है । उसमें द्वैत और द्वंद्व प्रत्यक्ष है। वह कर्म-विधान से चालित है । वह तो प्रत्यक्ष ही है, वह प्रतिपल अनुभवगम्य है, उसको प्रमाण क्या ?,
'आलोकित हुआ, भन्ते । श्रुति यह भी तो कहती है कि एकोऽहम् बहुस्याम् : मैं एक ही बहु होता हूँ।'
'आयुष्यमान भव, गौतम । तू प्रबुद्ध हुआ, गौतम । एकान्त द्वैत भी सत्य नहीं, एकान्त अद्वैत भी सत्य नहीं । वह सत्ता द्वैत भी है, अद्वैत भी, एक भी है, अनेक भी है। वह अनन्त-कला-प्रकाशी है। वह अनन्त गुण-पर्याय-विलासी है। वह अनन्त सम्भावी है। सो वह अतयं और अनिर्वच है । वह केवल एकाग्र, समग्र, अनुभवगम्य है : वह कथ्य नहीं, शब्द-प्रामाण्य नहीं । वह केवल एक अविरल बोध है, अनुभूति है। अचिन्त्य प्रकाश है, द्रष्टा और दृश्य से परे का तल्लीन निजानन्द है । पूछ नहीं, गौतम, चुप हो जा, स्तब्ध हो जा, केवल देख, केवल जान, केवल अनुभव कर । विकल्प न कर। केवल बोध कर, केवल बोध कर और खुप रह, मिश्चल रह ।· · देख भी नहीं, जान भी नहीं, दृश्य भी नहीं, दृष्टा भी नही । केवल तू हो, तू होता रह । तू नहीं, वह हो जा । तत् त्वम् असि । और तेरे सारे प्रश्नों का उत्तर तुझे अनायास मिल जायेगा । सोऽहम्, मोऽहम्, सोऽहम्, गौतम।
__'जयवन्त हों त्रिलोकीनाथ, महावीर । में संचेतन हुआ, भन्ते । में सम्यक देख रहा हूँ, मैं सम्यक् जान रहा हूँ, मैं सम्यक हो रहा हूँ । नाद-ब्रह्म मुझ में रूपायमान हो रहे हैं। मेरी आत्मा के पात्र में अर्हत् का अमृत ढ़ल रहा है। अपने को पहचान रहा हूँ, भन्ते ।' __'देश-काल की मृत्यु-खेला में इस अमृत का सम्वहन कर, गौतम । आदि सूक्तों और ऋचाओं के गायक गौतमों के वंशधर गौतम, शास्ता तेरी प्रतीक्षा में थे । तू आ गया, तू सर्वज्ञ अर्हत् का एक और गणधर हुआ । कल्प-कल्प में कैवल्यज्योति को प्रवाहित कर, गौतम ।
'आदेश, आदेश, त्रिलोकीनाथ ।' 'दिगम्बर हो कर, ऋतम्भरा प्रज्ञा का वरण कर, गौतम ।'
... और गन्धकुटी के पाद-प्रान्त में पांच सौ शिष्यों सहित अंगिरस अग्निभूति गौतम, देखते-देखते दिगम्बर हो गये। मानो मध्यम पावा के यज्ञ-हुताशन,
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