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'वही उपाय तो सर्वज्ञ है । देखो गौतम, तुम तीनों भाई एक ही मातापिता की सन्तान हो, एक ही परिवेश में रहते हो, एक ही गुरु से विद्या - लाभ किया है । फिर तुम्हारे रूप-रंग, आकार-प्रकार, सुख-दुख, भाव-विचार, राग-द्वेष भिन्न-भिन्न क्यों हैं ? एक ही परिस्थिति में उत्पन्न तुम तीनों की स्थितियाँ भिन्न क्यों ? '
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'भौतिक परमाणुओं के जोड़-तोड़ की विषमता से विभिन्न व्यक्तियाँ, विभिन्न स्थितियाँ, विभिन्न भाव स्वभाव हैं, लाभालाभ हैं ।
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'इस जोड़-तोड़ का कोई नियम विधान नहीं ? कोई नियन्ता शक्ति नहीं ? 'कौन जाने, सब अन्धाधुन्ध लगता है, भन्ते । सब अनिश्चित है । '
'अनिश्चय और अराजकता के बीच भी जो राजकता और व्यवस्था अनायास क्षत होती है, उसका नियामक कौन ? राजकता बिना सत्ता कैसी ? '
'कोई परम सत्य है ही, परम सत्ता है ही ।
'उसी का परिचालक नियम विधान है कर्म । अपने-अपने क्षण-क्षण के भावानुसार, जीवन का अनेक रूपों में परिणमन होता है । यही परिणमन चार गति और चौरासी लाख योनि में निरन्तर प्रतिफलित और परम्परित हो रहा है । यह सब कर्म - सत्ता का खेल है, देवानुप्रिय गौतम ! '
'प्रतिबुद्ध हुआ, भगवन् । लेकिन ऋग्वेद का पुरुष सूक्त कहता है : पुरुष एवेदं ग्नि सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्वंशनो यदन्नेवातिरोहित । यह श्रुति केवल एक अद्वैत पुरुष या आत्मा को सत्ता मानती है। इसके अनुसार तो दृश्य, अदृश्य, बाह्य, अभ्यन्तर, भूत, भविष्यत् सब कुछ वह पुरुष ही है । उसके अतिरिक्त और कोई सत्ता या पदार्थ है ही नहीं । फिर कर्म का अस्तित्व उससे भिन्न कैसे स्वीकारूँ ? स्वीकारूँ, तो श्रुति मिथ्या सिद्ध होती है । क्या श्रुति को मिथ्या मान लूं, भन्ते स्वामिन् ? '
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श्रुति मिथ्या नहीं, तुम्हारी दृष्टि मिथ्या हैं, गौतम । उक्त श्रुति-वाक्य में केवल अनुभूति पक्ष का कथन है । पुरुष आत्मानुभव करता है, तो वह अपने अतिरिक्त और कुछ अनुभव नहीं करता । वह अखण्ड महासत्ता का अनुभव होता है । उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र एकाकार हो जातें हैं । तत्त्व और पदार्थ मात्र उस एकमेव केवलज्ञान में तदाकार हो जाते हैं । ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान वहाँ एक और एकीभूत हो जाते हैं । परम अनुभूति में अद्वैत का ही साक्षात्कार होता है । क्योंकि वहाँ विकल्प, नय, दृष्टिकोण, भेद-विज्ञान की भिन्नता को अवकाश नहीं ।'
'तब फिर कर्म की सत्ता को कहाँ अवकाश है, भन्ते ?'
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