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'तो कल तुम जो थे, परसों जो तुम थे, बरसों पहले जो तुम थे, वह कौन था, गौतम ?'
'वह · · · वह · · मैं ही था भन्ते, मैं ही हूँ भन्ते! '
'इसी न्याय से और भी पहले, और भी पहले, पूर्व जन्मान्तरों में, अनन्त काल में तुम नहीं थे, इसका क्या प्रमाण ?'
'सो निश्चय कसे हो, भन्ते ?' 'अभी अपने होने का निश्चय तुम्हें है ?' 'अभी तो मैं हूँ ही ?' 'यह मैं कौन है, कहाँ से आया ?' . 'मैं मैं हूँ, और पितृ-संयोग से, मातृ-गर्भ से जन्मा हूँ !' 'वे माता-पिता कहाँ से आये, उनके रज-वीर्य में तुम कहाँ से आये?' 'वह दो पदार्थों के मिलन की प्रतिकृति है, भगवन् ।' 'यह तीसरा पदार्थ पहले कहाँ था ? ' 'वह पदार्थों में कहीं अव्यक्त रहा होगा !' 'वह अव्यक्त कहाँ से आया ? ' 'कहीं कुछ है ही अन्तत : ।'
'वह कुछ ही सब-कुछ है, गौतम । वह शाश्वत है, और वह नाना रूपात्मक पदार्थों में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा परम्परित है । यही क्रिया-प्रतिक्रिया, कारण-कार्य की शृंखला, कर्म-शृंखला है । तुम और यहाँ का हर पदार्थ, हर व्यक्ति, इसी अनादि शृंखला की एक और कड़ी है। तुम्हारे सुख-दुख, साताअसाता, राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, इसी पारस्परिक प्रतिक्रिया के परिणाम हैं । क्या तुम इन द्वंद्वों से परे हो ?'
'नहीं हूँ, भन्ते । लेकिन इस स्थिति से कैसे उबरूँ? उबरे बिना चैन नहीं। मैं स्वतंत्र होना चाहता हूँ। पर कैसे ?'
'तुम्हारी वर्तमान स्थिति किसका फल है ? ' 'मेरी परिस्थिति का?' 'इस विशिष्ठ परिस्थिति का जनक कौन ?' 'अज्ञात पूर्व परिस्थितियाँ ? ' 'उनका जनक ?' 'वह जानने का उपाय नहीं, भन्ते! '
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