SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'आ गये महाअथर्वण अग्निभूमि गौतम ! शास्ता को तुम्हारी प्रतीक्षा थी। अकाल पुरुष महाकाल का स्वागत करते हैं।' ___ और एक परावाक् शक्ति के सम्मोहन से बँधे, अग्निभूमि गौतम, सीधे श्रीमण्डप की भूमि में खिंच आये । तरल सूर्य की तरह पारदर्श महावीर को सम्मुख अन्तरिक्ष में आसीन देख वे हतबुद्ध, पराहत हो रहे । और श्रीचरणों में दायीं और उपनिषत् हैं अग्रज इन्द्रमति गौतम । सर्वज्ञ की पुंजीभूत विभा के मूर्तिमान प्रतिबिम्ब । उनके सुनग्न सौन्दर्य में उन्हें देव-कवि उशनष् के दर्शन हुए। उन्हें स्पष्ट भान हुआ, कि यहाँ से लौटा नहीं जा सकता। और यह कैसी अनुभूति हो रही है, कि यहाँ न कोई विजेता है, न कोई विजित है। एक जिन वहाँ ऊपर है, जो आत्मजयी है, सर्वजयी है वह शिष्य बनाने नहीं बैठा । वह सब को अपने ही जैसा जिनेन्द्र बनाने बैठा है। और एक तीखा प्रश्न अग्निभूति की आँखों में नग्न हो कर चमक उठा। वे उसी जाज्वल्य दृष्टि से सर्वज्ञ को ताक उठे। और अचानक उन्हें सुनाई पड़ा : 'अग्निभूति गौतम, तुम्हारे चित्त में कर्म के अस्तित्व पर शंका है !' 'सर्वान्तर्यामिन्, गौतम-पुत्र अग्निभूति नमित हुआ।' 'कर्म अनुमान नहीं, स्वतः प्रमाणित ज्ञान है, गौतम।' 'आलोकित करें, स्वामिन् ।' 'तुम जो भी कुछ सोचते हो, करते हो, उसका कोई परिणाम होता है, आयुष्यमान् ? तुम पर भी, औरों पर भी ? ' 'होता भी है. नहीं भी होता है । वह ज्ञेय नहीं, कथ्य नहीं, प्रभु।' 'नहीं जानते हो, इसी से ज्ञेय नहीं, नहीं कह सकते, इसी से कथ्य नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है ? सोचना, करना, सब परिणामहीन है, तो उसका होना व्यर्थ है। तब तन, मन, वचन, कर्म सब व्यर्थ है। तब जीवन भी व्यर्थ है। परिणाम के अभाव में, सत्ता के होने का प्रमाण क्या ?' ___ 'समझ रहा हूँ, भगवन् । और भी प्रतिबुद्ध करें, भन्ते ।' 'जैसा भाव, जैसी क्रिया, वैसा ही परिणमन चेतना में होता है। वहीं जीवन में प्रतिफलित होता है। शुभ भाव और शुभ क्रिया से शुभ परिणमन। उसके जीवन में अनेक लाभों का प्रतिफलन । शुद्ध भाव और शुद्ध क्रिया से शुद्ध परिणमन । वही निर्बन्धन्, वही मुक्ति-रमण । परिणाम प्रत्यक्ष है, अतयं है, गौतम ।' 'परिणाम अनिवार्य है, भन्ते । और भी स्पष्ट करें।' 'तुम्हारा वर्तमान, तुम्हारे विगत का परिणाम है, गौतम !' 'विगत तो विलुप्त हो गया, भन्ते । आज अभी जो हूँ, वही मैं हूँ, भन्ते !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy