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नहीं कर सकती। मैं उस झूठे सर्वज्ञ का भण्डा फोड़ कर दूंगा । सत्य का सूर्य प्रकट हो कर रहेगा।'
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धीर शीतल स्वर में बोले वायुभूति 'तो फिर क्या विलम्ब है ?"
'एक क्षण का भी विलम्ब नहीं । मेरे अंगभूत शिष्यो, प्रयाण को प्रस्तुत हो जाओ । महाअथर्वण मृत्युंजय हो कर विपुलाचल को प्रस्थान करेंगे । अपने एक भ्रूभंग मात्र से उस समवसरण की मायापुरी को भूसात् कर देंगे
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और अपने यज्ञोपवीत को तानते हुए, पृथ्वी को धमधमा हुए, महापंडित अग्निभूति गौतम, अपने पाँच सौ शिष्यों के मण्डल से घिरे हुए, साक्षात अग्नि देव के समान विपुलाचल की ओर धावमान हो गये ।
फिर ऋषि पुत्रों के चुनौती भरे शंखनाद से पंचशैल की अरण्यानियाँ हिल
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उठीं । पर्वती चट्टानें रोमांचित हो उठीं । और अगले ही क्षण पाँच सौ शिष्यों से मंडलित महाअथर्वण अग्निभूति गौतम विपुलाचल पर चढ़ आये । मानांगना भूमि
मानवती नायिका की तरह तीव्र कटाक्षपात् कर उनका स्वागत किया । ... after को अनुभव हुआ कि कोई बलात्कारी बाहुबन्ध उन्हें कस रहा है । वे पसीज कर अवश हुए जा रहे हैं । उनका वह दुर्दान्त 'मैं' कहाँ अन्तर्धान हो गया ?
उन्होंने जैसे इस आविष्टता को झंझोड़ कर तोड़ देना चाहा । अपनी पूर्ण शिखा को लपटों की तरह उछाल कर उन्होंने मानस्तम्भ पर यों भ्रूनिक्षेप किया, for मानों अपने एक ही दृष्टिपात से वे समवसरण की इस नाक को तोड़ कर, : इस सारी ऐन्द्रजालिक मायापुरी को भस्म कर देंगे। लेकिन मानस्तम्भ पर निगाह डालते ही, उनके पैरों तले की धरती जैसे खसक आकाश विदीर्ण हो गया । वे अपने अस्तित्व को रखने के यी धरती, नया आकाश खोजने लगे । गन्धकुटी के अधर - पुरुष पर जा अटकी ।
गयी । माथे पर का
लिये, चारों ओर कोई
कि हठात् उनकी भटकती निगाह,
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ओ, यह कौन है, जो अनालम्ब अधर में आसीन है । सारे जाने हुए धरती आकाश से परे, आप ही अपनी धरती, अपना आकाश हो गया है । लेकिन वह सर्वज्ञ ? कहाँ है वह कौन है वह ? अपने परात्पर ज्ञान का प्रमाण दो, अर्हत् वर्द्धमान महावीर !
नादब्रह्म फिर शून्य में घहराने लगे । गन्धकुटी पर से आवाज़ आयी :
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