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तले, वे रक्त कमलासन की परिक्रमा में, उज्ज्वल सिंहासन पर आसीन हो
गये ।
असंख्य देव सृष्टियाँ और मानव सृष्टियाँ हर्षायमान हो कर जयध्वनि करने लगी :
सर्वज्ञ अर्हन्त महावीर जयवन्त हों जगद्गुरु भगवान महावीर जयवन्त हों भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम जयवन्त हों महाब्राह्मण, पट्टगणधर गौतम जयवन्त हों ।
और गन्धकुटी पर से दिव्य-ध्वनि हुई :
'मध्यम पावा का पुनर्नवा सोमयाग, विपुलाचल के समवसरण में सम्पन्न हुआ, गौतम । यही है नूतन युग के विवस्वान् का आसन । यहीं से आगामी मनवन्तर की गायत्री गुंजित होगी । यहीं से वेद और उपनिषत् को जीवन में साकार करने वाले नूतन सामगान की धाराएँ फूटेंगी ।'
गौतम के श्रीमुख से लोकात्मा का अनादि सिद्ध मन्त्र उच्चरित होने लगा :
‘ओम् नमो अर्हन्ताणम्, नमो सिद्धाणम् नमो आयरियाणम्, नमो उवज्झायाणम्, नमो लोये सव्व साहुणम् । चत्तारि मंगलम्, अर्हन्त मंगलम्, सिद्ध
मंगलम
...और उसी में से मधुच्छन्दा की मन्त्र ध्वनियाँ, अनायास, अनाहत प्रतिध्वनित होने लगीं ।
असंख्य कंठों के समवेत मंत्रोच्चारों, और जयकारों से दिक्काल के पटल हिलने लगे । उनमें नव्यमान सृष्टियाँ ज्वारों की तरह उमड़ने लगीं ।
समस्त आर्यावर्त में बिजली की तरह खबर फैल गयी : वर्तमान लोक के मूर्धन्य ब्राह्मण, भगद्पाद इन्द्रभूति गौतम ने, श्रमण तीर्थंकर महावीर के श्रीचरणों में आत्मार्पण कर दिया । वे विपल मात्र में ही जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर दिगम्बर हो गये । वे सर्वज्ञ महावीर के गणधर पद पर आसीन हो गये ।
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• सुन कर, मध्यम पावा की यज्ञभूमि में सन्नाटा छा गया । मन्त्रोच्चार अचानक थम गये । सैकड़ों याजकों के आहुतियाँ होमते हाथ अधर में स्तंभित हो रहे । लेकिन यह क्या, कि मंत्र - ध्वनियों और आहुतियों के थम जाने पर
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