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'ग्रंथियाँ टूट रही हैं, भन्ते, आवरण उतर रहे हैं, भन्ते । मुझे अपने जैसा ही बना लो, स्वामी । आप्त बना दो, प्रभु, अनाप्त में नहीं जिया जाता । मेरे मुझे स्वरूप में लीन कर लो ।'
स्वरूप,
'जिनेश्वरी सावित्री तुम्हारा वरण करने आयी है, भगवद्पाट इन्द्रभूति गौतम । इसे निरावरण हो कर अंगीकार करो ।'
• विपल मात्र में इन्द्रभूति गौतम के शरीर पर से सारे वसन यों उतर गये, जैसे सर्प ने अनायास कंचुक उतार दिया हो । उनके पाँच सौ शिष्य भी तत्काल उसी तरह अनावरण हो गये । वे पाँच सौ एक पुरुष गन्धकुटी की ओर दोनों भुजाएं पसारे दिगम्बर खड़े हैं। और भगवान के रक्त कमलासन में से एक मयूर पिच्छी और एक कमण्डल तैर आया । गौतम की फैली बाहुओं ने उन्हें झेल लिया । एक हाथ में कमण्डल और दूसरे हाथ में पीछी धारण कर वे भव्य गौरांग आर्य पुरुष, कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान के सम्मुख खड़े रह गये । उनके मस्तक पर एक श्वेत कमल आ कर गिरा । उन पर चन्दन-वृष्टि हुई, पुष्प वृष्टि हुई, वासक्षेप वृष्टि हुई । वे नम्रीभूत हो कर अपने जगदीश्वर श्री गुरुनाथ के चरणप्रान्तर में भूमिसात् हो रहे ।
'भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम ! '
'आदेश, त्रिलोकीनाथ ! '
'तीर्थंकर महावीर, अपने गणधर गौतम को पा कर कृतकाम हुए। गन्धकुटी के कमलासन की परिक्रमा में आसीन हों, वेदवाचस्पति इन्द्रभूति गौतम । सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि को झेलें, आत्मसात् करें, आज के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुसार उसे खोलें, वागीश्वर गौतम । आत्मा की अनादिकालीन प्रज्ञाधारा का सम्वहन करो, गौतम । आगामी युगान्तरों में । काल के आरपार । तुम्हारे भीतर से आर्यों का आगामी मनवन्तर फूटेगा । प्रतिश्रुत होओ गौतम, प्रतिकृत होओ गौतम । '
'मेरे भगवान्, मुझे तद्रूप बना लो, मुझे मनमाना तोड़ दो, और मोड़ दो । मुझे स्व-रूप में ढाल दो। मुझे अपनी कैवल्य ज्योति का भाजन बना लो, भगवन् ! मैं प्रस्तुत हूँ ।'
अगवानी में शर्केन्द्र गन्धकुटी से नीचे उतर आया । उसने श्वेत कमलों के पाँवड़े- रचाये, और भगवदार्य गौतम का आवाहन करता हुआ, उन्हें ऊपर लिवा ले गया । गौतम की आँख प्रभु की आँख से मिली, और वे एक अगाध सौन्दर्य के माधुर्य में मूर्च्छित हो गये । ठीक त्रैलोक्येश्वर प्रभु की सर्व प्रकाशी चितवन
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