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'मैं मुक्त हुआ, नि:शंक हुआ, निद्वंद्व हुआ, नाथ। फिर लोग क्यों कहते हैं कि वर्द्धमान महावीर ऋक्-द्रोही है । वेद-विरोधी है । यह अपलाप क्यों ? ___'वेद परम प्रवाही ज्ञान है । वह ग्रंथ नहीं, निग्रंथ है । वह शब्दायमान हो कर भी शब्द-बद्ध नहीं, सार्वभौम है । अर्हत वेद-द्रोही नहीं, वाद-विद्रोही है। सत् अनेकान्त है, वस्तु अनेकान्त है, सो उसका ज्ञान भी अनेकान्त है। सर्वज्ञ अनेकान्त देखता है, अनेकान्त जानता है, अनेकान्त कहता है । सर्वज्ञ अविरोधवाक् होता है । वस्तु में तुम एकान्त देखते हो, एकान्त जानते हो, एकान्त बोलते हो । इसी से श्रुति में भी तुम एकान्त पढ़ते हो। इसी से भ्रम होता है । इसी से वेद का वेदाभास हो गया है । महवीर वेद का विच्छेद करने नहीं आया, विरोध करने नहीं आया। वह वेदार्थ को अखण्ड और सम्पूर्ण प्रकाशित करने आया है । उसे लोक में चरितार्थ करने आया है।'
इन्द्रभूति गौतम सुनते-सुनते मानो बोध की एक गहरी समाधि में डूब गये। उनकी आत्मा में आनन्द का समुद्र उछल रहा है । वे निर्वाक् हो गये । केवल परावाक् प्रवाहित है। वे उसी में तल्लीन हो रहे हैं । ___ 'श्रुति अविरल और अपरिछिन्न है. गौतम। क्यों कि सत्ता अविरल और अपरिछिन्न है। श्रुति महाभाव है । क्यों कि सत्ता स्वयम् महाभाव है। इसी से श्रुति कविता है, वह नित-नव्य रमणीय है । विकल्प तुम्हारे मन में है, तुम्हारी दृष्टि में है। इसी से तुम श्रति में विकल्प और विरोध देखते हो । प्रतिकृत हुए, सौम्य ? प्रतिश्रुत हए, देवानुप्रिय ?' __ 'प्रतिबुद्ध हुआ, भन्ते, प्रतिकृत हुआ, भन्ते, प्रतिश्रुत हुआ, भन्ते । · · · सम्यक् देख रहा हूँ, सम्यक् जान रहा हूँ, सम्यक् हो रहा हूँ। मेरी त्रिकुटी में यह कौन तीसरी आँख खुल आयी !'
'महावीर कृतार्थ हुआ, गौतम !' । 'मेरे त्रिलोकीनाथ प्रभ, मेरे सर्वस्व, मेरे सर्वान्तर्यामी ।' 'तथास्तु, गौतम ।'
'भन्ते ब्रह्माण्डपति । ओम् भू मुंवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ! –सविता को आँखों आगे साक्षात् देख रहा हूँ। अनन्तों में वेद-पुरुष महावीर जयवन्त हों।'
'आयुष्यमान् भव, आत्मसूर्य भव गौतम !' 'मैं अनुगत हुआ, भन्ते । मैं श्रीचरणों में समर्पित हुआ, भन्ते !' 'निग्रंथ दिगम्बर हो, देवानुप्रिय । चिदम्बरा का वरण कर, देवानुप्रिय ।'
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