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'आप जानें, देवार्य ।' 'आपे में आओ, ब्रह्मन् ।' 'आपा तो मैं हार गया श्रीचरणों में । मैं मिट गया ।' 'अब जो शेष है, वही तुम हो, ब्रह्मन् ।'
'मैं · ब्रह्मन् ? मैं और ब्रह्मन् ? नहीं, साक्षात् परब्रह्म सम्मुख हैं । परम सविता, भर्गदेव, प्रजापति । मैं कोई नहीं।'
'केवली का वचन मिथ्या नहीं होता, गौतम । तत् त्वम् असि । दर्पण सम्मुख है, अपने को देखो गौतम।'
गौतम अपने को देखने से इनकार करते हैं । वे सर झुका कर चुप रह गये हैं । वे फिर शंकाकुल हो आये हैं । भीतर से जैसे एक तीर फूटा आ रहा है । मन ही मन बोले : 'नाम मेरा इस अर्हत ने सुना होगा, इसी से पुकार लिया । पर जो चरम प्रश्न मेरी चेतना को रात-दिन उत्पीडित रखता है, उसे यह आर्य स्वयम् ही बता दे तो जानूं कि यह सर्वज्ञ है ।'
'तुम्हें अपने होने में संशय है, गौतम ?' 'देवार्य, · · यह क्या सुन रहा हूँ ?' 'तुम्हारे मन में शंका है, पुरुष के अस्तित्व पर, आत्मा की सत्ता पर !' 'कैवल्य-सूर्य को प्रणाम करता हूँ।'
'तीर्थंकर को लोक के सबसे बड़े संशयात्मा को प्रतीक्षा थी । अमृत, पात्र के लिये प्रतीक्षमान था । सो तुम आये गौतम, और शब्द-ब्रह्म वाक्मान हुए।'
'मेरी धन्यता वचनातीत है, प्रभु ।'
'सर्वोपरि प्रश्न का सर्वोपरि उत्तर प्रस्तुत है, गौतम । सर्वोपरि संशय का सर्वोपरि समाधान प्रस्तुत है, गौतम् ।'
'भगवतो, अर्हतो, सम्बुद्धो . . .'
'अपने होने में संशय, यही सर्वोपरि संशय है । और तुम सर्वोपरि संशयात्मा । चरम संशय को धार पर ही परम समाधान उतरता है, गौतम।'
मुक्त करें, प्रभु ।' 'तुम्हें अपने होने पर शंका है ? पूछता हूँ, यह शंका कौन करता है ?' 'मैं प्रभु . . . ?' 'इस मैं पर तुम्हें शंका नहीं ?'
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