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है वह सर्वज्ञ तीर्थंकर ? चलने में प्रयास नहीं रहा । जैसे वे तैर रहे हों । . . . यह कैसा खिचाव है ? नहीं, उन्हें कोई नहीं बाँध सकता । उनकी भृकुटियाँ तन गयीं । उनकी वैश्वानरी आँखें ऊपर उठीं । समवसरण की अपार वैभव-विभा के केन्द्र में, गन्धकुटी के अन्तरिक्ष में अधर आसीन हैं ज्योतिर्मय पूषन् । स्वयम् महाविष्णु प्रजापति । क्या यही सर्वज्ञ महावीर है ? पता नहीं । • लेकिन आर्य गौतम ने वह देख लिया, जिसे देख लेने पर देखना समाप्त हो जाता है । सोचना समाप्त हो जाता है । · · · परन्तु · · 'नहीं, यह कोई मायिक इन्द्रजाल है। उन्होंने अपने शरीर के ठोस द्रव्य को महसूसा । कस कर पकड़ा । कहीं उड़ न जाये । यह मायावती है, किसी जादूगरनी का देश । लेकिन पता करना होगा। कौन है यह ? किसका यह मोहक, कीलक और स्तम्भक उत्पात है ?
आर्य गौतम के मन में स्फुरित हुआ : 'ओ अन्तरिक्षचारी देव, तू सर्वज्ञ होगा तो मुझे नाम ले कर पुकारेगा !' और धर्मचक्रों की सुवर्ण-रत्निम् प्रभाओं से आकृष्ट होते-से भगवद्पाद गौतम आगे बढ़ते चले गये । - हठात् उनकी दृष्टि फिर गन्धकुटी पर जा लगी।
औचक ही उस अधरासीन पुरुषोत्तम के मस्तक के चारों ओर विराट इन्द्रधनुषी मण्डल प्रसारित होने लगे । वे मानो देश-काल को पार करते शून्य में लीन होने लगे । और उनमें से एक अनहद नाद उठ कर समस्त लोकालोक में व्याप्त होने लगा। एक मण्डलाकार गुंजती ओंकार ध्वनि से तमाम चराचरसृष्टि आप्लावित होने लगी।
आर्य गौतम की आत्मा में एक तीखा प्रश्न चीत्कार उठा । 'मुझे पहचानते हो सर्वज्ञ ? तो पुकारो मेरा नाम, और प्रमाण दो अपनी सर्वज्ञता का।'
और वह अनहद गर्जन शब्दायमान हआ । गन्धकुटी के शीर्ष पर से आवाज़ आयी : 'इन्द्रभूति गौतम !'
आर्य गौतम निस्तब्ध हो रहे । वे अविचल उस उत्तान ज्योतीश्वर को ताकते रह गये । अकस्मात उनके मुंह से बरबस ही फूटा :
'मैं प्रणत हुआ, सर्वज्ञ अर्हत् !'
'आर्यावर्त के ब्राह्मण-श्रेष्ठ, गौतम ! कैवल्य-पुरुष को तुम्हारी प्रतीक्षा थी। तुम आये, अर्हत् आप्यायित हुए, तुम्हें पा कर, हे ब्रह्मपुत्र !'
'ब्रह्मतेज मूर्तिमान है सामने ! मेरे ब्राह्मणत्व का गर्व खर्व हो गया, भगवन् !' 'अर्हत् केवली विकल्प नहीं बोलते । अपने को पहचानो, गौतम !'
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