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अनेकान्त का मानस्तम्भ
राजगृही के गर्वीले प्रासाद-शिखर चौकन्ने हो उठे । पंच शैल के तपोवन केशरिया आलोक से जगमगा उठे। शंख-ध्वनियों से आकाश उत्क्षिप्त है। पांच सौ शिष्यों से परिवरित भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम विपुलाचल को ओर अग्रसर हैं । जैसे कम्पायमान मेरु पर्वत चल रहा है। उसमें तूफान सम्हले हुए हैं । एकाग्र । एक शिखर से टकराने के लिये, जिसे जय किये बिना वैदिक धर्म का पुनरत्थान सम्भव नहीं ।
__आर्य गोतम को आज स्पष्ट साक्षात्कार हो गया है । मारे वेद-विद्रोही तीर्थकरों का पुजीभूत विग्रह है, तथाकथित सर्वज्ञ महावीर । वही आज के लोक में, गौतम के मन, आदिकालीन वैदिक धर्म का सबसे बड़ा प्रतिरोधी, विरोधी और शत्रु है । आज उसका खुल कर सामना कर लेना होगा । उसे अन्तिम रूप से पराजित कर देना होगा । तब अन्य स्वैराचारी तीर्थक भी आप ही ध्वस्त हो जायेंगे। आर्य गौतम कृतनिश्चय हैं, कटिबद्ध हैं । उनकी मुद्रा और भंगिमा आक्रमणकारी की है । पराक्रान्त देव-सेनापति कार्तिकेय की तरह वे जाज्वल्यमान हैं । उनकी तूफानी अलकों में मधुच्छन्दा की मंत्र-ध्वनियाँ लहरा रही हैं । उनके ललाट पर वैश्वानर धधक रहे हैं । महामण्डलेश्वर देवपाद गौतम अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी और प्रतिरोधी से टक्कर लेने जा रहे हैं । । ।
समवसरण की मानांगना भूमि में पहुँचते ही, आर्य गौतम को दूर पर खड़ा मानस्तम्भ दिखायो पड़ा । उस पर दृष्टिपात करते ही मानो उनका अहंकार कपूर की तरह छूमंतर हो गया। जैसे भीतर-बाहर के कई कोष अनायास उतर गये । वे बहुत हलकापन महसूस करने लगे। वे स्वस्थ और अधिक ऊर्जस्वल हो गये। स्नायुओं का तनाव यों ढीला हो गया, जैसे मुक्त-कुन्तला सावित्री ने उन्हें अपने हृदय में ढाँप लिया हो । वे निश्चल पग आगे बढ़े, कि देखू, कहाँ
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