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· · ये वेदविद्या-निधान, वेदान्त-वाचस्पति भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम चल रहे हैं । श्रुतियाँ, स्मृतियाँ, ऋचाएँ, सूत्र उन्हें चारों ओर से घेर कर चल रहे हैं। पर वे उनसे अछूते और अभावित हैं। वे अपने ही अहम् में आपाद-मस्तक डूबे हैं । गर्जन-तर्जन की बिजलियाँ उनके अंग-अंग में तड़क रही हैं। पर वे अपने को किसी तरह सम्हाले हुए हैं । वे कस कर ओंठ भींचे हुए हैं, और दाँत पीस रहे हैं । जैसे पर्वतों को चबा जायेंगे।
ये वेद-वेदान्त के पारगामी, तर्क-वागीश्वर, दुर्दान्त वादीभगज-केहरी, सिद्धान्तशार्दूल इन्द्रभूति गौतम चल रहे हैं। प्रलयकाल के समुद्र की तरह उनकी आत्मा विक्षुब्ध है । वे अपने सत्तामूल से उच्चाटित हो कर. मानो शन्य की खंदकों में छलांगें भर रहे हैं । जैसे अपने ही बड़वानल से विदग्ध कोई महासागर चल रहा है।
जिसकी माँ का नाम पृथ्वी है, जिसके पिता हैं विश्व-विख्यात महापंडित बसुभूति गौतम । पृथा और वसुओं के आत्मज वे जन्मजात देवांशी हैं । 'गोभिस्तो ध्वस्तं यस्य' - ऐसे गौतम वंश के वे मार्तण्ड हैं । ऋग्वेद के अनेक सूक्तों के रचयिता प्रख्यात गौतमों के वे वंशज हैं । पर कितनी अशान्त, कितनी मर्माहत है उनकी आत्मा । वे अजित-जानी सूर्यांशी आज विजित हो गये ? अपार जलराशि का आगार, ज्ञान का यह पारावार क्या स्वयम् ही प्यासा है ?
उनके होते यहाँ दूसरा सर्वज्ञ और कौन हो सकता है ? वे उसे देखना चाहते हैं। · · · 'छद्म सर्वज्ञ महावीर, मैं आ रहा हूँ, भर्भुवः स्वः का वर्तमान पृथ्वी पर एक मात्र मन्त्र-दृष्टा, इन्द्रभूति गौतम ! मैं आता हूँ। '
पांच सौ शिष्यों से मण्डलित इस महाब्राह्मण को, यों प्रभंजन की तरह विपुलाचल की ओर धावित देख कर, मगध के प्रजाजनों के भय और आश्चर्य का पार नहीं । क्या प्रलयंकर महाकाल स्वयम् , शिवंकर शंकर से मिलने जा रहे हैं ?
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