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'वेदमूर्ति भगवद्पाद गौतम को कौन नहीं जानता । आपके पांडित्य और प्रतिभा के प्रति मैं प्रणत हूँ। इसी से तो आपके निकट समाधान पाने आया हूँ। पर आप भी जब निरुत्तर हो गये, तो अपना उत्तर तो मुझे कहीं पाना ही होगा। चाहे फिर उसके लिये अगम-निगम को उलट डालना पड़े ।'
'मतिमन्द ब्राह्मण. देख, तेरे समक्ष कौन खड़ा है ? वेद-वेदान्त, श्रुति-स्मृति, ब्राह्मण-संहिता, संसार के सारे ही ज्ञान-विज्ञान मेरे जिह्वान पर हैं। आज तक ऐसी कोई श्रुति उच्चरित न हुई, जो गौतम से अनजानी हो। मैं शब्द का स्वामी
और वाणी का वाचस्पति हैं। स्वयम् प्रजापति मेरे मंत्रोच्चारों पर उतरते हैं। स्वयम् वृहस्पति मेरी वाणी में बोलते हैं। और त कहता है कि मेरे सिवाय भी कोई सर्वज्ञ है, कोई अर्हत् महावीर है, और मैं निरुत्तर हो गया, और वह तेरे प्रश्न का उत्तर देगा ? प्रमाण दे बटुक, नहीं तो प्राण दे देना होगा !'
'हाथ कंगन को आरसी क्या, देवार्य ? स्वयम् ही विपुलाचल पर चल कर देखें, और प्रमाण पायें । सर्वज्ञता शब्द-प्रामाण्य कैसे हो सकती है ? वह तो साक्षात्कार का विषय है । मेरे साथ विपुलाचल पर चलें प्रभु, और मेरा तथा आर्यावर्त का वाण करें। नहीं तो हमारे त्रिकालज्ञानी ऋषि-पूर्वजों की ऋतम्भरा प्रज्ञा को बट्टा लग जायेगा!' ___ यह चुनौती इन्द्रभति गौतम के अस्तित्व-मूल को बींध गई । वे उत्तेजित हो कर चंक्रमण करने लगे । वे ज्वालागिरि की तरह भीतर-भीतर उबलने लगे। उन्होंने अपने को प्रतिबद्ध, कटिबद्ध पाया । ठीक कहता है यह बटुक । उस छद्म सर्वज्ञ का सामना करना होगा। उसे अन्तिम रूप से पराजित किये बिना वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा सम्भव नहीं । उसे ध्वस्त किये बिना आर्यावर्त में धर्म को जीवित नहीं रक्खा जा सकता । महावीर, तुम रहोगे, या मैं रहूँगा ! सत्ताएं दो नहीं हो सकतीं, सविता दो नहीं हो सकते, सौरमण्डल दो नहीं हो सकते, धर्म दो नहीं हो सकते । सावधान, सर्वज्ञ कहे जाते महावीर, मैं आता हूँ ! महाकाल ऋक्-पुरुष का सामना करने को तैयार हो जाओ। . ___ भट्टारक गौतम सन्नद्ध हो गये। भूमि पर अपने एक पैर से उन्होंने प्रहार किया और क्रोधानल से भभकते वे वहाँ से उठ खड़े हुए। यज्ञशाला में जाकर प्रजापति का वन्दन किया। फिर ललाट पर द्वादश तिलक अंकित किये। सूर्णिम यज्ञोपवीत धारण किया । कमर पर पीताम्बर पहना, देह पर स्वर्ण-खचित केशरिया उत्तरीय धारण किया। दर्भासन और कमण्डलु उठा लिया । और अपने पांच-सौ शिष्यों से परिवरित देव-कल्प इन्द्रभूति गौतम उस अज्ञात बटुक के साथ राजगृही के विपुलाचल की ओर प्रस्थान कर गये।
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