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अनेक छल-प्रपंचों द्वारा लोकजन को ठग रहे हैं, भरमा रहे हैं । यह कोई तत्त्व-ज्ञान नहीं, अर्थहीन प्रलाप है।' ___ 'भगवद्पाद गौतम, ऐसा नहीं है। मैं प्रत्यायित हूँ, मैं वेदना में हैं। यह गाथा जैसे मेरे अस्तित्व के अतल में से उठ रही है । यह अनिर्वार है । इसका उत्तर मुझे पाना होगा, या फिर खत्म हो जाना होगा । . . .'
'तुम वेदच्युत हो गये, बटक । यह वेद-विद्रोह है। और वेद-विद्रोही को मेरे सामने से हट जाना होगा, या हमारे प्रति समर्पित हो जाना होगा। और कोई विकल्प नहीं। निर्णय करो तुरन्त ।'
'मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि आर्य-श्रेष्ठ गौतम इन्द्रभूति भी मुझे निराश कर देंगे। नहीं सोचा था कि आपको सर्वज्ञानी प्रज्ञा से बाहर भी कुछ हो सकता है। लेकिन अब प्रमाणित है, कि कुछ ऐसा भी है, जो भगवद्पाद गौतम को भी गम्य नहीं। ठीक है प्रभु, जाता हैं। यदि मुझे जीना हैं, तो इस जिज्ञासा का उत्तर पाना ही होगा। अच्छा, आज्ञा लेता हूँ, देवार्य !'
उस ब्राह्मण की निर्भयता और ध्रुव निश्चय को देख गौतम सर से पैर तक सिहर उठे । नहीं, इस बटुक को वे छोड़ नहीं सकते, जाने नहीं दे सकते । जैसे यह अनिवार्य है, और उनके अस्तित्व की शर्त है।
'हमें छोड़ कर कहाँ जाओगे, बटुक, जरा जानना चाहूँगा!' गौतम के स्वर में भयंकर रोष और उपालम्भ था। और विवशता भी थी।
'विपुलाचल पर जाऊँगा, देवार्य गौतम । मुनता हूँ, महाश्रमण वर्द्धमान सर्वस हो गये हैं । वे विपुलाचल पर देवोपनीत समवसरण की गन्धकुटी में अधर पर आसीन हैं। पृथ्वी से ऊपर उट कर विहर रहे हैं वे पृथ्वीनाथ ! हवाओं में खबर है, कि सारे प्रश्नों के उत्तर उनके श्रीमख से अपने आप ध्वनित होते हैं। ऐसा कोई प्रश्न आज तक न उठा, जिसका उत्तर उनके पास न हो। मुझे स्पष्ट प्रतीत हो रहा है, कि मेरी गाथा का गूढार्थ कोई सर्वज्ञ ही खोल सकता है । सोचता हूँ, सर्वज्ञ अर्हत् महावीर मुझे निराश न करेंगे।'
'आत्मघाती कायक्लेश को ही तप मानने वाला वह नग्न श्रमण सर्वज्ञ हो गया ? (निदारुण अट्टहास) वाह रे वाह उसकी सर्वज्ञता ! मेरे सामने आये तो उसकी सर्वज्ञता क्षण मात्र में छुमन्तर हो जाये । अज्ञानी बटुक, तू नहीं जानता कि तू किसके सामने खड़ा है ? तुझे महावीर की सर्वज्ञता को प्रमाणित करना होगा। नहीं तो इस वेद-विद्रोह का मूल्य अपने प्राणों से चुकाना होगा !'
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