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गौतम को बहुत गहरे में कहीं भान-सा हआ : जैसे ये शब्द अपरिचित नहीं हैं। जैसे कहीं सुनी है पहले यह गाथा। किसी अलक्ष्य में गूंजते वे शब्द ! ऐसे ही कुछ तो थे । जिनको मैंने · · · मैंने · · अनसुना कर दिया था। यह कैसा विचित्र योगायोग है ! गोतम एक अज्ञात भय से सिहर आये।
गाथा के प्राकृत शब्दों को तिरस्कारपूर्वक ही सही, गौतम ने सूना, समझा। लेकिन उनका उद्गम, आशय, भावार्थ ? उन्हें कुछ भी समझ न आया । उनका दीमाग चकराने लगा। विश्व-तत्त्व का ऐसा सूनिर्दिष्ट अभिनव व्याख्यान, सच ही उन्होंने पहले कभी न सुना था। · · · गौतम ने पराजय का गहरा आघात अनुभव किया। वे झंझला आये और बोले :
'ब्राह्मण, देश-भाषा प्राकृत में कोई तत्त्वज्ञान नहीं कहा जा सकता। हमने सुना, समझा, फिर भी इस अनार्य और अभद्र भाषा में दर्शन सुनने और समझने से हम इनकार करते हैं। देव-भाषा संस्कृत में इस गाथा का भाषान्तर करके कहो।' 'सनें देवपाद गौतम, संस्कृत में सुनें:
'काल्यं द्रव्यषटकं नवपद सहितं जीव-षट्काय-लेश्याः । पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत-समिति-गति-ज्ञान-चारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमलं त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमहंदिरोशः ।
प्रत्येति श्रघाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ।। इन्द्रभूति गौतम सुन कर अवाक रह गये। उनकी समझ में कुछ न आया। आँखें मीच ध्यानस्थ होने का बहाना कर, वे अपनी समझ को मथने लगे। लेकिन विश्व-तत्त्व का यह मौलिक विधान किसी भी तरह उनकी बुद्धि की पकड़ में न आ रहा था। मानो कि यह केवल बुद्धि या केवल संवेदन से गम्य नहीं। कोन है इसका प्रवक्ता? यह किसकी दुरभिसन्धि है ? यह कौन है . जो मुझे - मझे पुकार रहा है ? खींच रहा है। · · ·और जैसे मस्तक पीछे फेंक कर उन्होंने उस दुर्निवार सम्मोहन से बचना चाहा । वे फिर झल्ला कर बोले :
'सुन आयुष्यमान् , यह साक्षात्कृत वेद-वाणी नहीं । यह शब्दों का इन्द्रजाल है । यह तत्त्वज्ञान नहीं, तत्त्वाभास है, तत्त्व-द्रोह है। इस कुज्ञान के चक्कर में पड़ेगा, तो अनन्त नरक का भागी होगा। तत्त्व-बोध चाहता हो तो मेरा अनुमरण कर। ___'मैं तो भगवद्पाद का अनुगामी हँ ही । इसी से तो अपनी इस तीन और अटल पृच्छा का समाधान पाने को अन्ततः पूज्यश्री के पास आया हूँ।'
'अरण्य में सुनी इस प्रेतवाणी को तू मस्तिष्क से निकाल दे, बटुक । आज कल हमारे आर्यावर्त में सुरों के विरुद्ध असुर भयंकर अभियान चला रहे हैं । वे
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