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'हाँ भगवन्, ऋचा नहीं, गाथा सुनाई पड़ी। उसका शब्दार्थ तो मैं समझ न सका । पर उसकी ध्वनि ने ही मुझे हठात् अपने मूल से उच्चाटित कर दिया । मेरे अब तक के सारे अर्जन को विसर्जन कर दिया। मेरी सारी साधना और ज्ञान को उलट-पुलट कर रख दिया। मेरी चूलें हिल गई हैं । मैं खड़ा नहीं रह सकता । उस गाथा के अर्थ और तत्त्व को जाने बिना मुझे क्षण भर भी चैन नहीं, प्रभु !'
'ऐसी भी कोई गाथा हो सकती है ? तुम्हें कोई भ्रम हो गया, बटुक !'
'नहीं देवपाद गौतम, यह भ्रम नहीं, यह सत्यों का सत्य है । इसके मर्म को समझे बिना मैं अस्तित्व में नहीं रह सकता । इसका उत्तर पाना होगा, या मर जाना होगा । अपूर्व है यह तत्त्वज्ञान, पहले कभी सुना न गया !'
गौतम को फिर किसी षडयंत्र की गन्ध-सी आयी। वे ज़रा उत्तेजित हो अट्टहास कर उठे : ___ 'इन्द्रभूति गौतम के ज्ञान से बाहर कोई तत्त्वज्ञान पृथ्वी पर नहीं। हमारे लिये कुछ अपूर्व नहीं । तुम वेद में अश्रद्धा कर रहे हो, बटुक, सावधान !'
'नहीं भगवन्, अश्रद्धा नहीं कर रहा । लेकिन मेरी श्रद्धा इस गाथा की चोट से और भी तीव्र और सतेज हो गयी है। वह अपना आधार खोजने को बेचैन हो उठी है । वही पाने को तो भट्टारक गौतम के पास आया हूँ। आपके ज्ञान की यशोगाथा से दिगन्त गुंज रहे हैं। आपके भीतर ही इस समय वेद-भगवान पृथ्वी पर प्रकाशमान हैं। आर्यावर्त आपके भीतर साक्षात् पूषन को लोक में विचरते देखता है। सारे ही जनपदों में भटक आया हूँ, इस गाथा को ले कर । बड़े-बड़े वेदान्ती और वागीश्वर भी इसे थाह न सके। सर धुन कर रह गये। तब सोचा कि भगवद्पाद गौतम के सिवाय इस अबूझ को कोई बूझ न सकेगा। सो सेवा में उपस्थित हूँ। देवार्य आज्ञा दें, तो गाथा प्रस्तुत करूँ।'
गौतम के आहत अहंकार को जैसे इस बटुक ने सहारा दिया, सहला दिया।वे उसके विनीत भाव से गद्गद् हो आये । और बोले : 'आयुष्यमान् वटुक, तुम सच्चे जिज्ञासु हो । अपनी गाथा प्रस्तुत करो।' और बालक-मुखी वृद्ध ब्राह्मण ने गाथा उच्चरित की :
'पंचेव अत्थिकाया, छज्जीव-णिकाया महण्वया पंच ।
अट्ठ यपवयण-मादा, सहेउओ बंध-मोक्खो य ॥' 'यही वह गाथा है, आर्य गौतम । मुझे आलोकित करने का अनुगृह करें।'
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