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सुनो आर्यो, सुनो ब्राह्मणो, हमारा संकट और भी बड़ा हो गया । आसुरी अन्धकार की मायावी शक्तियाँ दल बाँध कर हम पर टूट पड़ी हैं । हमारे सोमवनों में पराक्रान्त दस्यु वाहिनियाँ घुस आयी हैं । इनका निराकरण करना होगा । महाअथर्वण के मंत्रों द्वारा इस महा ऐन्द्रजालिक को ध्वस्त कर देना होगा । उठो ब्राह्मणो, उठो और असुर संहार के मंत्रोच्चार करो ...!'
कि अगले ही क्षण शत्रुसंहारिणी रुद्राग्नि के आवाहन मंत्र उच्चरित होने लगे :
वयं द्विष्मः ।
वयं द्विष्मः ।
अग्ने यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप योस्मान् द्वेष्टि यं अग्ने यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर योस्मान् द्वेष्टि यं अग्ने यत् तेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च योस्मान् द्वेष्टि यं अग्ने यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः । अग्ने यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।
वयं द्विष्मः ।
• कि ठीक उसी क्षण एक भोला-भाला तेजस्वी बटुक इन्द्रभूति गौतम के सामने आ खड़ा हुआ । उसकी मुद्रा नितान्त नाटकीय है । और आश्चर्यजनक है इस बटुक की कौतुक - क्रीड़ा । कभी वह निरा अबोध सुन्दर किशोर लगता है। कभी अत्यन्त जरा-जीर्ण आदि पुरातन ब्राह्मण लगता है । उसकी ओंडी आँखों में जलते तीर-सा एक तीखा प्रश्न है । पर बहुत अकिंचन, नम्र, जिज्ञासु है उसकी भंगिमा । इन्द्रभूति गौतम उसे देख कर स्तम्भित हो रहे ।
उसने भगवद्पाद गौतम को साष्टांग प्रणिपात किया । फिर उसने निवेदन किया :
'देवार्य गौतम, मैं वेद-विद्या का एक अकिंचन साधक और सेवक हूँ । परिव्राजन करता हुआ, जगह-जगह लोकजन को ऋकों का गान सुनाता हूँ । ऋतम्भरा प्रज्ञा को जन-मानस में प्रकाशित करने के लिये निरन्तर तीर्थाटन करता रहता हूँ ।'
सुनकर इन्द्रभूति गौतम आश्वस्त प्रसन्न दीखे । बोले :
I
'साधु, साधु बटुक, वेद-विद्या निश्चय ही जीवित है । तुमने साक्षी दी है । और कोई नया सम्वाद ? कोई नया अनुभव ? '
'भगवद्पाद गौतम, यात्रा में राह चलते, एक गुंजान अरण्य में मुझे कोई गाथा गूंजती सुनाई पड़ी ! '
'गाथा ? ऋचा नहीं ? श्लोक नहीं ? गाथा ? '
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