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तभी साहस कर एक और ब्राह्मण कम्पित स्वर में बोला : .
'भगवद्पाद गौतम, जो प्रत्यक्ष है उसका नकार कैसा? हम लोग स्वयम् अपनी आंखों देख आये हैं। विपूलाचल पर सर्वज्ञ महावीर तीर्थंकर हो कर, गन्धकुटी पर आसीन हैं। असंख्य देवलोकों ने उनके चेहँ ओर विराट् समवसरण की रचना की है। ऋग्वेद की ऋचाओं में जिस अर्हत् के स्वरूप का वर्णन है, वह आज विपुलाचल पर साक्षात् प्राकट्यमान है । जैसे समूचा ब्रह्माण्ड वहाँ पिण्ड रूप में उपस्थित है। और उसके शीर्ष पर ब्रह्माण्डपति स्वयम् आसीन हैं । अपूर्व है वह दृश्य, देवार्य गौतम । वेद भगवान को हम अपनी खुली आँखों देख आये !' ___ इन्द्रभूति गौतम का वश चले तो वे इस प्रलापी ब्राह्मण को अस्तित्व में से पोंछ देना चाहते हैं । वे भीतर ही भीतर ज्वालामुखी हो उठे हैं। वे होट भींच कर दाँत पीस रहे हैं, और ख न के घुट उतार रहे हैं । यज्ञ की मन्त्र-ध्वनियाँ मन्द हो कर जैसे अवसान पा रही हैं । एक अफाट खामोशी में एकाकी ओंकार ध्वनि उठ कर जैसे उक्त सम्वाद का समर्थन कर रही है।
और इन्द्रभूति गौतम फिर मानो सम्हलते हुए अट्टहास कर उठे :
'ठीक ही तो है, जैसा यह सर्वज्ञ झूठा है, वैसी ही ये देव-सृष्टियाँ झूठी है। सच्चे स्वर्ग और सच्चे देवता हमारे यज्ञ की अवज्ञा कैसे कर सकते हैं ? वे स्वयम् हमारे मंत्रों के विग्रह हैं । वे ही हमारे मंत्र, मंत्री, मंत्रेश्वर हैं। वे अपनी ही अवहेलना कैसे कर सकते हैं ? नहीं, ये देव-विमान नहीं थे, ये देव-सृष्टियां नहीं थीं। पिशाच और प्रेत, देवों का रूप धर कर हमें ठगने और भरमाने आये थे।'
इन्द्रभूति गौतम दांत किटकिटाते हुए, क्षण भर खामोश हो कर आकाश ताकते रह गये । और सहसा ही वे फिर भभक उठे : ___'सरासर यह भ्रान्ति है, यह मरीचिका है। यह कोई ऐन्द्रजालिक सर्वज्ञ है, कोई मायावी जादूगर है। उसने अपनी माया का विस्तार कर सारे ही लोक की आँखों को बाँध दिया है। कीलक और वशीकरण करके, यह धूर्त पाखण्डी अपना मनचाहा रूप और वैभव भोली-भाली प्रजाओं को दिखा रहा है । और उन्हें भटका रहा है, भरमा रहा है।' . . .
तभी पास खड़े एक ब्राह्मण ने भगवद्पाद का समर्थन किया :
'सत्य कह रहे हैं, भगवद्पाद ! परम सत्य । आप से बढ़ कर सत्यवादी और सर्वज्ञ पृथ्वी पर आज कोई नहीं। एक ही आकाश में दो सूर्य एक साथ कैसे रह सकते हैं।'
'दो सूर्य ? इस प्रवाद को दुहराना भी पाप है, भूदेव । वह भर्ग और भूमा का अपमान है। वह परम सविता को अस्वीकार करना है। ...
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