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________________ , ४२ हुतियों और मांत्रिक आह्वानों से आकृष्ट हो कर ही ये देव-सृष्टियाँ पृथ्वी पर आ रही हैं। उन्हें निश्चय हो गया था कि अभी-अभी वे यज्ञ-भूमि में उतर, वैदिक धर्म की विजय-पताका फहरा कर सारे संसार को झुका देंगी। समस्त ब्राह्मण-जगत उन देव-विमानों पर टकटकी लगाये, प्रचण्डतर वेग से मंत्रध्वनियाँ उच्चरित कर रहा है। ... कि हठात् आकाश पर उठी हजारों आँखों ने देखा : कि वे देव-विमानों की पंक्तियाँ एक तिर्यक् मोड़ लेकर विपुलाचल की ओर धावमान हो गई। देखकर सारी यज्ञभूमि सनाका खा गई। सहस्रों आँखें दूरियों में ओझल होती देवसृष्टियों को हताश ताकती रह गयीं। उनमें शून्य के बगुले चक्कर काटने लगे। इन्द्रभूति गौतम और उनके सहवर्ती ग्यारह महायाजक पथराये-से धरती पर जड़ित रह गये। ___ इन्द्रभूति गौतम सोच में पड़ गये । देवों ने भी हमें धोखा दे दिया ? हम अब तक व्यर्थ ही उनके आवाहन-मंत्र लिखते रहे ? सारे वेद, सारे ऋषि, सारे देव झूठे पड़ गये ? आर्यों के सारे तप-तेज व्यर्थ हो गये ? स्वयम् प्रजापति हमारे साथ छल खेल गये? या वे हैं ही नहीं ? सत्, ऋत्, तपस् क्या मात्र एक कपोल-कल्पना है ? ब्रह्म केवल पलायन का आयतन है ? कि ठीक तभी एक ब्राह्मण दौड़ता हुआ आया और बोला : 'देवपाद इन्द्रभूति गौतम, सुनें ! महाश्रमण वर्द्धमान महावीर सर्वज्ञ हो गये। ऋजुबालिका नदी के तट पर उन्हें परम कैवल्य-लब्धि प्राप्त हो गयी। विपुलाचल पर उनका समवसरण हो रहा है । ये सारे देव-विमान उन्हीं की वन्दना को विपुलाचल पर जा रहे हैं।' भगवदार्य इन्द्रभूति गौतम का मूलाधार जैसे विस्फोटित हो उठा । वे काँपकाँप आये । भृकुटि-भंग कर वे गरज उठे : 'वैशाली का राजपत्र श्रमण वर्द्धमान सर्वज्ञ हो गया ? इससे बड़ा झूठ पृथ्वी पर क्या हो सकता है ? वेद-पुरुष का उपहास कर रहा है रे, भामटे ! तेरी ज़बान कट क्यों नहीं पड़ती ! मेरे होते, दूसरा कोई सर्वज्ञ पृथ्वी पर कैसे चल सकता है ? एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती। यह झूठ है, यह एक महान भ्रान्ति है। यह मिथ्या प्रवाद है। यह बकवास है। यह सविता और सावित्री का घोर अपमान है। ऐसा नहीं हो सकता। मैं कहता हूँ-ऐसा कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं। न भूतो न भविष्यति । . . .' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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