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ग्यारह पंडित वेद-वेदाङ्ग के पारगामी हैं । ये वर्तमान वैदिक धर्म, वाङमय और संस्कृति के चूड़ामणि हैं । इन्हीं के नेतृत्व और निर्देशन में वेद-वेदान्त, श्रुति-स्मृति, सूत्र-संहिताओं का पुनर्वाचन,, पुनर्सकलन, संशोधन और नूतन विधायन यहाँ हो रहा है।
एक दिन उषःकाल की पवित्र सुगन्धित बेला में उपरोक्त ग्यारह ब्राह्मण श्रेष्ठ बड़ी तन्मयता से सामगान करते हुए विशाल यज्ञशाला का पौरोहित्य कर रहे थे। खुले आकाश के नोचे, आम्रवनों को छाँव में विशाल वर्तुलाकार यज्ञमण्डप निर्मित है । विपुल फूल-पल्लव. कदली-स्तम्भ, तोरण-बन्दनवारों से वह सज्जित है। उसके केन्द्र में ओंकार का विग्रह-स्वरूप विशाल हवन-कुण्ड धगधगायमान है। उसी के एक ओर की वेदी पर आसीन हैं भव्य गौरांग तीनों आर्य-पुत्र गौतम इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति । वही इस महायाग के प्रमुख अग्निहोत्री हैं। और सर्वोपरि महाऋत्विक है, भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम ।
इस केन्द्रीय यज्ञ-कुण्ड के चारों ओर कुण्डलाकार में, सैकड़ों हवन-कुण्ड धधक रहे हैं । केशरिया परिधानों में सज्जित सहस्रों ब्राह्मण प्रचण्ड घोष के साथ समवेत मंत्रगान करते हुए उनमें आहुतियाँ दे रहे हैं । होमाग्नियों की अनेक मेखलाएं जैसे परिक्रमा करती हुई फेरी दे रही हैं। आस्थावान चित्त अनुभव करता है, कि इन यज्ञों के हुताशनों पर साक्षात् प्रजापति अपने विशाल देवकुल के साथ उतर रहे हैं।
. . कि अचानक ही आकाश में देव-दुन्दुभियों का गंभीर घोष सुनायी पड़ा। अनेक देव-विमानों की कांतिमान, वक्राकार पंक्तियाँ पृथिवी की ओर आती दिखायी पड़ी । सारे यज्ञ-मण्डप में हर्ष छा गया। महाऋत्विक् इन्द्रभूति गौतम सहित ग्यारहों प्रमुख अग्निहोत्री ब्राह्मण-श्रेष्ठ उल्लम्ब बाहु मंत्रोच्चार करते हुए यज्ञमण्डप के द्वार पर आ खड़े हुए। वे ऊर्ध्व बाहु हो कर आगन्तुक देवसृष्टियों की ओर आवाहन के मंत्रोच्चार करने लगे :
स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषः विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तायो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभयावानो विदथेषु जग्मयः ।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्व नो देवा अवसागमनिह ।। उनके गंभीर ऋचा-घोष में कृतार्थता का हर्ष छलक रहा था । उन्हें और सारे ही विशाल याज्ञिक ब्राह्मण-मण्डल को स्पष्ट प्रतीति हो रही थी, कि हमारी यज्ञा
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