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________________ अनाचार के विरुद्ध विद्रोह का बवंडर जगाया है। इनकी यह बग़ावत नकार की चरम सीमा तक पहुँच गयी है। इन्होंने सारी परम्परागत विद्याओं और ज्ञान की विरासत को झुठला दिया है । इन्होंने धर्म की बुनियाद में ही सुरंगें लगा दी हैं। इन्होंने अन्तिम समस्याओं पर तीखे प्रश्न उठा कर, सारी प्रजा को नास्तिक और अराजक बना दिया है। छह प्रमुख श्रमण इस विद्रोह के नेता हैं। ये अपने को तीर्थक् या तीर्थंकर कहते हैं। इन सब में परस्पर तीव्र मतभेद हैं, विवाद हैं। विचार में, आचार में, दर्शन में। पर सामान्यत: ये सभी उग्र तपस्वी हैं। वैदिक भोगवाद, और उपनिषदिक् ब्रह्मवाद तथा आनन्दवाद की निपट आत्म-केन्द्रित और आत्म-लिप्सु व्याख्याओं के विरुद्ध इन्होंने, आचार, उपलब्धि और सामाजिक नैतिकता की तीखी चुनौतियाँ खड़ी की हैं। चिन्तन और दर्शन को जीवन में आना होगा । उसे प्रतिदिन की चर्या में उतरना होगा । ब्रह्म को धरती पर चलना होगा । अपनी इस सत्य-निष्ठा से वे इतने ज्वलन्त हो उठे हैं, कि उसके वल उन्होंने धर्म, राज और समाज के तमाम सत्तापतियों को ललकारा है। उनसे जवाब-तलब किया है । हजारों वर्षों के स्थापित धर्म और संस्कृति का प्रासाद भरभरा कर ढह जाने के ख़तरे में पड़ा है। ये तीर्थक नंगे होकर चौराहों पर खड़े हो गये हैं । सत्य की आग से वह्निमान होकर इन्होंने तमाम भगवानों, वैकुण्ठों, देवों की सत्ता को ललकारा है। सत्य की जिज्ञासा और मुमुक्षा से ये इतने ज्वलन्त हैं, कि इन्होंने सत्ता के निष्क्रिय शून्यों में उतर जाने का ख़तरा उठा लिया है । ये सत्ता और सविता को ललकार रहे हैं, कि सामने आओ, सारे प्रतिबन्ध और पर्दे तोड़ कर । ये ब्रह्मविलास पर नहीं रुक सकते । ये जीवन में ब्रह्म का प्रकाश चाहते हैं। तर्क के तीर पर ये हर तत्त्व को तौलते हैं। ___ इसी विद्रोह की आंधी का मुकाबला करने के लिए समस्त आर्यावर्त के कोटिभट ब्राह्मण और धर्माचार्य यहाँ एकत्रित हैं। इनके सर्वोपरि नेता हैं भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम, और उनके दो अनुज, महापंडित अग्निभूति गौतम और वायुभूति गौतम । इनके अतिरिक्त और भी आठ धुरन्धर धर्माचार्य और शास्त्र-वाचस्पति यहाँ उपस्थित हैं। उनके नाम हैं क्रमशः व्यक्त, सुधर्मा, मण्डिक, मौर्यपुत्र, अकम्पिक, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास। इनमें से तीनों गौतम-पुत्रों के पाँच-पाँच सो शिष्य हैं । व्यक्त और सुधर्मा के भी पाँच सौ अनुगामी यहाँ आये हैं । मंडिक और मौर्यपुत्र, प्रत्येक साढ़े तीन-सौ शिष्य-मण्डल से परिवरित हैं। अकम्पिक, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास तीन-तीन सौ शिष्य-सम्पदा से मण्डित हैं । ये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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