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________________ है। उनका संशोधन और पुनख्यिान हो रहा है। उनमें नये अर्थ और सम्भावनाएं खोजी जा रही हैं। ___आज की वस्तु-स्थिति यह है, कि ऋषि-कुलों में फूट पड़ गयी है। उनके वंशज ब्राह्मण अनेक उपगोत्रों और शाखा-प्रशाखाओं में बँट गये हैं। उनमें परस्पर विग्रह है, कलह है, सिर-फडौवल है । अपनी नयी इयत्ता स्थापित करने के लिये, विभिन्न गोत्रीय ब्राह्मणों ने मन्त्रों और सूत्रों तक में मन-माने पाठान्तर कर लिये हैं। कपोल-कल्पित ऋषियों के नाम पर बेशुमार मंत्र रच डाले हैं। अपने-अपने राजा, क्षत्रिय, वणिक यजमानों की स्वार्थ-पूर्ति और प्रसन्नता के लिए ऊल-जलूल नये मंत्रों और कर्मकाण्डों तक की रचना कर डाली गयी है। गिरती हुई ब्राह्मण-प्रभुता को थामने के लिए, और ब्राह्मणत्व के दुर्ग को अभेद्य बनाने के लिए, यजुर्वेदियों ने कठोर नियम-विधान गढ़ लिये हैं । नयी आचार-संहिताएं और ब्राह्मण-ग्रंथ रच कर समस्त सवर्णी प्रजा को अपने अंगूठे तले दबा रखने के क्रूर षडयंत्र चल रहे हैं । · · ·अपने ऐहिक स्वार्थों और लिप्साओं की तृप्ति के लिए, इन ऋषि-वंशियों ने धर्म को वाणिज्य की हाट बना दिया है । इसी से भार्गवों, वाशिष्ठों और पाराशरों का आदिकालीन ब्रह्म-तेज मंद पड़ गया है। __कहाँ हैं आज ऋक्-साम यजुर्वेद के वे मंत्रकार, जो अपने मंत्रोच्चार, स्पर्श या जल-छिड़कन मात्र से असाध्य रोग हर लेते थे, मृतकों को जिला देते थे? जो अपने सूर्य-सोम रसायनों से पारद को बाँध देते थे । लोह को सुवर्ण बना देते थे । क्षर माटी की काया को सिद्ध अक्षर शरीर में परिणत कर देते थे। धूलिकणों को रत्न की ढेरियों में बदल देते थे। जिनकी मंत्र-ध्वनियों से वनस्पतियों में अमृत का संचार होता था। जो सोम-वल्ली और कल्प-वल्ली के रहस्यों को जानते थे । जंगलों में जड़ी-बूटियाँ जिन्हें पुकार कर अपने-अपने औषधिक गुणों की ज्योति से उन्हें चमत्कृत कर देती थीं । पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्होंने दुर्द्धर्ष तप किये थे। उनके तपस्तेज में से ही अमत नितर कर सोम-वनों की नसों में व्याप जाता था । और उसी सोमरस को पीकर के वे अगम-निगम के रहस्यों को प्रकाशित करते थे। पूषन् के ऊर्ध्व मण्डलों में उड़ानें भरते थे। आज उन्हीं मृत्युजयी ऋषियों की सन्ताने राजाओं, श्रेष्ठियों और वणिकों के द्वार की भिखारी हो गयीं थीं। भाट, चारण और भोजन-भट्ट हो कर रह गयी थीं। ___ ब्राह्मणत्व के पतन और भ्रष्टाचार की इसी पराकाष्ठा पर से ये श्रमण उठे हैं । इन्होंने तमाम परम्परागत श्रुतियों को नकार दिया है । विकृत ब्राह्मणत्व का भण्डाफोड़ किया है। इन्होंने वेद-वेदान्त के नाम पर चल रहे शोषण और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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