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भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम
मगध में आर्य सोमिल पूर्वीय भारत के ब्राह्मणों के प्रतापी नेता हैं। उनकी विद्वत्ता और प्रतिष्ठा की धाक सुदूर पश्चिमांचल तक जमी हुई है । वे स्वयम् एक कीर्तिमान याजक हैं। और श्री-सम्पन्न यजमान भी।
मध्यम पावा में उन्होंने ही इस विराट् यज्ञ का आयोजन किया है । उद्देश्य यह है कि चारों ओर चल रहे वेद-विरोध का निराकरण हो, और वैदिक धर्म की भव्य पुनर्प्रतिष्ठा की जाये । तमाम आर्यावर्त के दिग्गज भू-देवता उसमें आमन्त्रित हैं। द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, कृष्ण यजुर्वेदी, शुक्ल यजुर्वेदी, याज्ञवल्की, नचिकेतसी.सारे भेदभाव भूलकर यहाँ एकत्र हैं। कि समस्त ब्राह्मणत्व एकीभूत हो जाये, और आत्म-रक्षा का उपाय करे। स्वर-विहारी श्रमणों ने ब्राह्मण प्रभुता की जड़ें हिला दी हैं । वेद और उपनिषद् के सम्मुख चुनौती है। सविता और सावित्री के छन्दकार ऋषियों के वंशज यह कैसे सह सकते हैं । उनकी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गयी हैं।
उन्होंने विद्रोही श्रमणों की इस चुनौती को स्वीकारा है । और उसी का एक अमोघ उत्तर देने के लिए इस पुनर्नवा सोमयाग का आयोजन किया है। वेदवेदान्त, संहिता, श्रुति, स्मृति आदि समग्र वैदिक वाङमय के धुरन्धर अधिकारी पण्डित यहाँ उपस्थित हैं । उनका वचन प्रमाण माना जाता है। श्रुति और स्मृति पर उनका निर्णय अन्तिम होता है।
एक ओर सुबह से शाम तक होम-हवन में अखण्ड आहुतियाँ चलती रहती हैं। अविराम मन्त्र-ध्वनियाँ गूंजती रहती हैं । दूसरी ओर सुगन्धित हव्यों और धूपों से पावन उस वातावरण में, पर्ण-शालाओं में बैठकर अनेक पंडित मंडलियाँ वाङमय की नयी संकलना में संलग्न हैं। श्रुतियों की नये सिरे से वाचना हो रही
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