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सारे ही इन्द्र, माहेन्द्र, अहमिन्द्र, सिंहासन की सीढ़ियों पर और कटनियों में
उद्विग्न हैं, पृच्छा भाव से विकल हैं। सुरेश्वर भगवान के दोनों ओर चामर ढालते हुए कुमार और ईशान इन्द्रों के हाथों में डुलते ढुलक पड़ते हैं।
बलीन्द्र और असुरेश्वर चमरेन्द्र रह-रह कर अटक जाते हैं । सनत् मर्कत-मणि के विजन रह-रह कर
पादप्रान्त में नृत्य-गान
हुई जा रही हैं ।
इन्द्राणियाँ, देवाँगनाएँ और अप्सराएँ गन्धकुटी के करती हुई जाने कैसी असह्य विरह व्यथा से मूर्च्छित और सौधर्मेन्द्र गम्भीर चिन्ता में पड़ गया है। आज पैंसठ दिन हो गये, भगवान को कैवल्य-लाभ हुए। उनकी कैवल्य - ज्योति से लोकालोक प्रकाशमान और आनन्दित हो गया है । निखिल के प्राण उनकी सर्व प्रकाशिनी वाणी को सुनने के लिये तड़प रहे हैं । फिर भी ये मन-मन के मोहन, प्राण-प्राण के प्रीतम चुप क्यों हैं ?
सौधर्मेन्द्र की पृच्छा छोर पर पहुंच कर निदारुण पीड़ा हो गयी । वेदना से उसकी तहें भिदने लगीं। और उसे अपने अन्तश्चेतन के केन्द्र में से ध्वनित सुनाई पड़ा :
"
'जानो स्वर्गपति, सर्वज्ञ तीर्थंकर को अपने गणधर की प्रतीक्षा है । ब्रह्म-पुरुष की अनाहत वाणी को लोक का कोई मूर्धन्य ब्राह्मण ही आत्मसात् करके उसे लोकविश्रुत बना सकता है । त्रिकाल ज्ञानेश्वर प्रभु इम क्षण लोक के उसी महाब्राह्मण की प्रतीक्षा में हैं !'
'कौन है वह ? कहाँ है वह ? उसे कहाँ खोजना होगा ?"
'मध्यम पावा में आर्य सौमिल, वैदिक धर्म की लुप्तप्राय धारा को फिर से प्रतिष्ठित करने के लिये एक महान यज्ञ कर रहे हैं । इन्द्रभूति गौतम हैं उसके महायजनिक । आर्यावर्त का यह ब्राह्मण श्रेष्ठ श्रमण धर्म का कट्टर विरोधी और शत्रु है | वही है, शक्रेन्द्र, वही है महावीर का गणधर । विश्व- वल्लभ प्रभु अपने उस सबसे बड़े प्रतिरोधी और विरोधी की प्रतीक्षा में हैं । वही उनका एकमेव प्रतिस्पर्धी, उनका एकमेव प्रथम श्रोता हो सकता है। उसके आये बिना सर्वज्ञ की दिव्य - ध्वनि शब्दायमान नहीं हो सकती !
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'ऐसे दुर्दान्त विरोधी को यहाँ लाने का उपाय क्या ?'
और हठात्
'वह तुम जानो, शक्रेन्द्र ! वह तुम्हारा कर्त्तव्य है । उसे तुम देखो ।' और शन्द्र सौधर्म - पति और भी गहरी चिन्ता में डूब गया । ... उसे कुछ सूझा । वह प्रफुल्लित हो आया ।उपाय करने को उद्यत हो कर शक्रेन्द्र
चुपचाप वहाँ से अन्तर्धान हो गया ।
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